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Thursday, September 8, 2011

Ramkathhaa YAAD AATAA HAI GUJARAA JAMAANAA 56

याद आता है गुजरा जमाना 56

मदनमोहन तरुण

‘रामकथा’

डॉ. बुल्के मूलतः विज्ञान और गणित के विद्यार्थी थे, अतः शोध के क्षेत्र में उनकी संधान-दृष्टि प्रमाणजीवी थी और वे तथ्य -परीक्षण के समय, उसे उसकी समग्रता में देखने के पक्षपाती थे, ताकि उसका छोटा-से-छोटा अंश भी छूट न जाए। यही कारण है कि रामकथा पर कार्य करते समय उन्होंने लिखित-अलिखित तथ्यों, साक्ष्यों एवं प्रमाणों का एक विशाल संसार खड़ा कर दिया और उस दिशा में आगामी शोध-संभावनाओं के अनेक नये द्वार उद्घाटित कर दिये।

वे इंजीनियरिंग से बी.एस-सी. थे। लूबेन विश्वविद्यालय से एम.एस-सी. में गणित का अध्ययन करते हुए उन्होंने आइन्स्टाइन के सापेक्षवाद का अध्ययन किया था। तत्पश्चात् उन्होंने दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। 1935 में भारत आने पर उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत, इतिहास, हिन्दी-रचना तथा अंग्रेजी के साथ बी.ए. की परीक्षा पास की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. की परीक्षा पास करने के बाद, उन्होंने वहीं से डॉ. माताप्रसाद गुप्त जी के निर्देशन में- ’रामकथा: उत्पत्ति और विकास’- विषय पर अपना शोध कार्य समाप्त कर डी.फिल्. की उपाधि प्राप्त की। इलाहाबाद में रहते हुए वे हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में आए। 1940 में वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से मिले और बहुत प्रभावित हुए। निराला, महादेवी वर्मा, सुमित्रानन्दन पंत, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त आदि विभूतियों को उन्होंने निकट से देखा तथा डॉ. धीरेन्द्र कुमार वर्मा एवं डॉ. रामकुमार वर्मा के निकट संपर्क में रहे। डॉ. धर्मवीर भारती एवं डॉ. जगदीश गुप्त उनके सहपाठियों में थे।

डॉ. बुल्के के समग्र लेखन में उनकी वैज्ञानिक दृष्टि और साहित्य की संवेदनशीलता का गहरा एवं तात्विक संतुलन है। वे उनके लेखन में कभी एक-दूसरे की राह में नहीं आते, वे एक-दूसरे के पूरक की भूमिका में सदैव बहुत बड़े दायित्व का निर्वाह करते हैं। डॉ. बुल्के ने मौलिक, अनुवादित, छोटे-बड़े करीब 28 ग्रंथ एवं अनेक शोध आलेख प्रकाशित किए हैं, जिनमें मातरलिंक के विश्वप्रसिद्ध नाटक ’ब्लू वर्ड’ का ’नीलपंछी’ के नाम से तथा स्वाभाविक हिन्दी में बायबिल का अनुवाद सम्मिलित है। ’मानस-कौमुदी’ में उन्होंने रामचरित मानस के कवित्वपूर्ण एवं अपने प्रिय अंशों का संकलन किया है तथा ’रामकथा और तुलसीदास’ में उन्होंने अपने प्रिय कवि की कृतियों का गहरा मूल्यांकन-विश्लेषण प्रस्तुत किया है। डॉ. बुल्के की प्रतिष्ठा का मूल आधार उनके दो ग्रंथ हैं- रामकथा- उत्पत्ति और विकास’ तथा ’अंगरेजी-हिन्दी कोश’।

’रामकथा-उत्पत्ति और विकास’ हिन्दी-संसार को डॉ. कामिल बुल्के का अप्रतिम अवदान है। यह उनके अगाध अध्ययन, अपने कार्य के प्रति असाधारण निष्ठा, तलस्पशिंनी दृष्टि, अपार तथ्य-मंथन एवं विश्लेषण क्षमता से निष्पन्न अभूतपूर्व महाप्रबंध है। यह अध्ययन चार भागों एवं 21 अध्यायों में विन्यस्त है। प्रथम भाग के अध्ययन का मुख्य विषय ’प्राचीन रामकथा साहित्य’ है जिसका विस्तृत अध्ययन वैदिक साहित्य, वाल्मीकि कृत रामायण, महाभारत, बौद्ध रामकथा तथा जैन रामकथा के पांच अध्याओं में समाहित है। द्वितीय भाग ’रामकथा की उत्पत्ति- दशरथ जातक की समस्या, रामकथा का मूलस्रोत एवं प्रचचित वाल्मीकिकृत रामायण के कुछ मुख्य प्रक्षेप तथा रामकथा का प्रारम्भिक विकास आदि शीर्षकों के अन्तर्गत जाँचा-परखा गया है। तृतीय भाग का मुख्य विषय- अर्वाचीन रामकथा का सिंहावलोकन’ है, जिसे विश्लेषण की दृष्टि से ’संस्कृत धार्मिक साहित्य में रामकथा, संस्कृत ललित साहित्य में रामकथा, आधुनिक भारतीय भाषाओं में रामकथा तथा विदेशों में रामकथा शीर्षकों में विभाजित किया गया है। चतुर्थ अध्याय का मुख्य विषय- ’रामकथा का विकास है- जो रामायण के सात काण्डों- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्ध काण्ड, उत्तरकाण्ड- आदि से सम्बद्ध विशद सामग्री के अध्ययन-विश्लेषण पर आधारित है। उपसंहार के अन्तर्गत रामकथा की व्यापकता, विभिन्न रामकथाओं की मौलिक एकता एवं अवतारवाद आदि का विवेचन करते हुए इस शोध कार्य की उपलब्धियों को विन्यस्त किया गया है।

डॉ. बुल्के के मतानुसार वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र रामायण के पात्रों की चर्चा अवश्य है, परन्तु रामकथा से उनका संबंध कितना है, इसे स्थापित करना कठिन है। ऋग्वेद में दशरथ का नाम दानस्तुति में अन्य राजाओं का उल्लेख करते हुए केवल एक बार आया है। डॉ. दिनेशचन्द्र सेन के मतानुसार दशरथ मध्येशिया की मितन्नि नामक आर्य जाति के राजाओं में एक थे, जिनका शासनकाल 1800 ई. पूर्व के लगभग माना जाता है। इसी प्रकार वैदिक साहित्य में कई राम हैं। तैत्तरीय आरण्यक में राम शब्द का प्रयोग ’पुत्रा’ के अर्थ में किया गया है। प्रवग्र्य (सोमयज्ञ के पूर्व की एक विधि) का अनुष्ठान करने वाले नियमों का निदेश करते हुए कहा गया है- ’’वह एक वर्ष तक मांस-भक्षण न करे, स्त्री-गमन न करे, मिट्टी के बर्तन में पानी न पिये, उसका पुत्रा उच्छिष्ट न पिये आदि।’’ ऋग्वेद में राम का उल्लेख एक बार राजा के रूप में हुआ है। जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में राम का उल्लेख दो स्थलों पर शिक्षक के रूप में है। इसी प्रकार सीता वहां कृषि की अधिष्ठात्री देवी हैं। तैत्तरीय ब्राह्मण में सीता, सावित्री सूर्य की पुत्री के रूप में उल्लिखित हैं, कृष्णाजुर्वेद के तैत्तरीय ब्राह्मण में ब्रह्मा की दो पुत्रियाँ हैं- सीता और श्रद्धा।

डॉ. बुल्के इस संबंध में अपना मत देते हुए लिखते हैं- वैदिक रचनाओं में रामायण के एकाध पात्रों के नाम अवश्य मिलते हैं, लेकिन न तो इसके परस्पर संबंध की कोई सूचना दी गयी है न इसके विषय में रामायण की कथावस्तु में किंचित भी निर्देश किया गया है। ग्ग्ग् अतः वैदिक काल में रामायण की रचना हुई थी अथवा रामकथा संबंधी गाथाएँ प्रसिद्ध हो चुकी थीं, इसका निर्देश समस्त विस्तृत वैदिक साहित्य में कहीं भी नहीं पाया जाता। ग्ग्ग् इससे इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये नाम प्राचीन काल में प्रचलित थे।’’-24

डॉ. वेबर एवं डॉ. दिनेशचन्द्र सेन का मत है कि वाल्मीकि ने पहले-पहल दशरथ, रावण तथा हनुमान, इन तीन स्वतंत्र वृत्तांतों को लेकर रामायण की रचना की। डॉ. याकोबी के मतानुसार रामायण की कथावस्तु के दो स्पष्ट भाग हैं- अयोध्या से सम्बद्ध, जो ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है तथा दूसरा भाग सीताहरण और रावण वध से सम्बद्ध है जो मूलतः वैदिक साहित्य के पणियों द्वारा गायों के अपहरण एवं वृत्रासुर-वध का विकसित रूप है। ये विद्वान् कथा के प्रथम अर्थात् अयोध्या तक की कथा का आधार ’दशरथ-जातक’ को मानते हैं। डॉ. बुल्के इन मतों को प्रमाणसिद्ध नहीं मानते। ’दशरथ-जातक’ को वे वृत्तांत ब्राह्मण’ की रामकथा का विकृत रूप मानते हैं। इसमें सीता दशरथ की औरस पुत्री तथा राम-लक्ष्मण की सहोदरा बहन है। फिर यह बहुत बाद की रचना है। वे इन मतों की समीक्षा इन शब्दों में करते हैं- ’’रामायण की अंतरंग समीक्षा करने पर बहुत से विद्वान इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि अध्योध्याकांड की घटनाएँ अत्यंत स्वाभाविक हैं तथा लंका की घटनाएँ अलौकिक और काल्पनिक प्रतीत होती हैं। वास्तव में रामकथा के इन दो भागों में अन्तर अवश्य पाया जाता है, लेकिन इसे समझने के लिए रामकथा के भिन्न आधार मानने की आवश्यकता नहीं है। रामायण के इस द्वितीय भाग का प्रधान विषय है- सीताहरण और उसके कारण युद्ध। अयोध्या से राम के निर्वासन के समान यह भी अत्यंत साधारण घटना प्रतीत होती है, अतः कथावस्तु के दृष्टिकोण से दो भागों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है।’’-112

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