Total Pageviews

Saturday, August 20, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 49

याद आता है गुजरा जमाना 49

मदनमोहन तरुण

घर से दूर

जहानाबाद के काँलेज में अभीतक इंटरमीडिएट के बाद स्नातक की पढा॰ई शुरू नहीं हुई थी। आगे की पढा॰ई की इच्छा रखनेवाले को गया या पटना जाना पड॰ता था, क्योंकि जहानाबाद से निकटतम दूरी पर यही दो बडे॰ शहर थे।मैं किसी भी कीमत पर इन दो शहरों में अगली पढा॰ई के लिए तैयार नहीं था। मैं अब हर कीमत पर ऐसी जगह रहना चाहता था जहाँ मैम यहाँ के परिवेश से दूर एक स्वतंत्र जीवन बिता सकूँ। अगली पढा॰ई के लिए गया और पटना के बाद दूसरा शहर राँची था जो इनकी तुलना काफी दूर था। बाबूजी मुझे वहाँ भेजने के लिए तैयार नहीं थे।जो भी हो, मैंने तीनों शहरों के कालेजों में अपने नामांकन के लिए आवेदनपत्र भेज दिआ। संयोग से राँची काँलेज से सबसे पहले अनुमतिपत्र आ गया। पटना और गया से आने वाले पत्र की कुछ दिन प्रतीक्षा करने के बाद भी कोई जबाब नहीं आया। अंततः बाबूजी को मुझे राँची भेजने के लिए तैयार होना पडा॰।एकदिन हम रात ग्यारह बजे की ट्रेन से राँची के लिए रवाना हो गये। बाबूजी हमारे साथ थे।मैं रातभर सो नहीं सका। खिड॰की से बाहर देखने की चेष्टा करता तो केवल अंधकार ही अंधकार दिखाई देता लेकिन इतना जरूर लग रहा था कि ट्रेन सघन जंगलों से गुजर रही थी।कोयल की कूक के साथ सबेरा हुआ।अब बाहर देखना आसान था। ट्रेन जंगलों और पहाडों॰ से होती हुई गुजर रही थी। कहीं - कही छोटे - छोटे गाँव दिखाई पड॰ जाते थे। यदि ट्रेन किसी स्टेशन में रुकती तो वहाँ ऐसे लोगों की संख्या अधिक होती जिनके शरीर पर कपडे॰ कम - से - कम होते। कमर में वे सिर्फ छोटा - कपडा॰ लपेटे होते , परन्तु उनके माथे पर किसी रंगीन रस्सी से फूल या पत्ता बँधा होता।युवा महिलाओं की सजावट में भी फूल और पत्तों का महत्व अधिक था । कुछ युवकों के हाथों में मैंने बाँसुरी भी देखी। मुझे लगा मैं एक नयी संस्कृति में शामिल होने जारहा हूँ।वे लोग वहाँ के आदिवासी थे-उराँव ,मुंडा, हो आदि जाति के लोग। सबकी अपनी - अपनी नायाब परम्पराएँ थीं। वे शहरों से सामान्यतः दूर रहते थे।मिशनरियों के प्रचार के कारण उनतक नई रोशनी पहुँच रही थी।

अचानक ट्रेन की गति धीमी होने लगी। बाबूजी जाग कर ब्रश कर चुके थे।मैं भी तैयार था। थोडी॰ ही देर में ट्रेन रुकी।यह था राँची स्टेशन। ट्रेनसे उतरते ही मैंने इस धरती को प्रणाम किया।एक सज्जन वहाँ हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। बाबूजी को देखते ही वे चहक उठे और झुक कर आत्यंत सम्मान से उनके पाँव छुए और बहुत आत्मीयता से हमारा स्वागत किया। वे राँची एक व्यापारी थे और बाबूजी के भक्त। हमारे रुकने की व्यवस्था उन्होंने ही की थी।

उसी दिन राँची काँलेज में मेरा नामांकन हो गया साथ ही मुझे होस्टल नम्बर पाँच में रहने की अनुमति मिल गयी।

बाबूजी जब रात की गाडी॰ से लौटने लगे तो उनकी आँखें गीली थीं।उन्होंने मुझे गले से लगा लिया।उनके भक्त भी उन्हें छोड॰ने गये थे। उनसे उन्होंने कहा 'इनका खयाल रखियेगा। इन्हें कोई कष्ट न हो। यहाँ इनके अभिभावक आप ही हैं।' मेरी ओर देख कर बोले -पढा॰ई में खूब मन लगाना।ज्यादा कविता में मत उलझना।'इसबार मुझे उनकी बातें जरा भी बुरी नहीं लगीं। वे कहीं अंतरतम से बोल रहे थे जिसमें एक पिता की सच्ची पीडा॰ थी।मैं खुद भी बहुत भावुक हो गया था।तभी गाडी॰ सीटी बजाती आगे सरकने लगी। मेरे मन में आया मैं भी बाबूजी के साथ लौट जाऊँ। उनसे बिछुड॰ने की मुझमें अगाध पीडा॰ थी।मैं बहुत भावुक हो रहा था।आदमी कितना विचित्र प्राणी है , जब वह किसी के पास होता है तो वह उसे शायद ही ठीक से समझ पाता है, किन्तु जब उससे दूर चला जाता है तो वही उसे सबसे अच्छा लगने लगता है।

जब मैं लौट कर होस्टल पहुँचा तो मुझे रात भर नींद नहीं आई। एक तो नया माहौल दूसेरे नये सन्नाटे का अजनवी अकेलापन ! मैं अबतक घर से दूर नहीं रहा था। मुझे मेरी माँ याद आ रही थी। मैं जैसे एक छोटा बच्चा बन गया था। लगता था बिलख - बिलख कर रोऊँ। फिर बाबूजी की बहुत याद आती रही ,किस तरह ट्रेन में अकेले बैठे वे चले जा रहे होंगे !उदास ! उनका भी यह नया अनुभव होगा !

उन्हें भी क्या नींद आई होगी ?

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

No comments:

Post a Comment