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Saturday, August 6, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 35


याद आता है गुजरा जमाना 35

मदनमोहन तरुण

मेरे बाबा

अपने बाबा से मेरा सबसे अधिक लगाव था। वे संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे, किन्तु अपनी विद्वत्ता को उन्होंने कभी अपने पर बोझ बनने नहीं दिआ। विद्वानों के दैनिक जीवन में जो एक रुक्षता आजाती है , वह उनमें जरा भी नहीं थी। वे शौकीन आदमी थे।वे सफेद बगलबन्दी, स्वच्छ धोती और कहीं पैदल जाते समय सफेद छाता का उपयोग करते थे। नाई प्रतिदिन आकर उनकी दाढी॰ बनाता था। उन्हें अपना पढा॰ सबकुछ याद था।सारे पुराण मैंने उनकी गोद में बैठे - बैठे सुने थे। कहानी सुनाने में उनकी इतनी तल्लीनता और गहराई होती कि कभी - कभी मुझे पता ही नहीं लगता कि मैं इस लोक में हूँ या किसी अन्य लोक में। कहानियाँ सुनाते - सुनाते वे कई बार बहुत भावुक हो जाते और रोने लगते।

अदृश्य संसार के प्रति अनुरक्ति मेरे मन में उन्हीं दिनों जागी।मैं जब अकेला होता तो पुराणों के पात्रों से मिलने उनके लोक में चला जाता और घंटों उनके साथ रहता।उस संसार से आज भी मेरा उतना ही गहरा लगाव है। मैं अपने समय का एक भाग दूसरी दुनिया में बिताता हूँ। वहाँ के सारे रास्ते मुझे मालूम हैं। कभी मैं बादलों की सवारी करता दूर - दूर निकल जाता हूँ तो कभी सागर की लहरों पर।कई बार मैंने पृथ्वी के तलातल के गहन अंधकूप में यत्राएँ की हैं। वहाँ के निवासियों से मेरा परिचय है।कई बार मैं यथार्थ और उसके भीतर के संसार में अंतर करना भूल जाता हूँ।मैंनें बहुत - सी चीजें पहले सपनों में देखी हैं , यथार्थ में उन्हें ठीक उसी रूप में, बहुत बाद में देखा है। जितना यह संसार विचित्र नहीं है, उससे कहीं अधिक सचित्र उसके भीतर की दुनिया है। हम जहाँ बैठे या खडे॰ होते हैं ,उसके आसपास न जाने कितने लोक बसे हैं , न जाने कितनी घटनाएँ हो रही हैं। वे समय - समय पर हमें प्रभावित भी करती हैं। हम जब कहीं से गुजरते हैं तो हमारे साथ कई और अदृश्य लोक चलते रहते हैं। यह सब उतना ही सच है जितना हमारा होना, हमारे चारों ओर का दृश्य संसार।

बाबा से मेरी इस विषय पर बातें होतीं। वे कभी मेरी बातों को गलत नहीं मानते थे। उस लोक से स्वयं उनका भी उतना ही लगाव जो था। वे भी उस लोक के यात्रियों मैं थे। उनकी विद्वत्ता के बोझिल न होने का कारण सम्भवतः यही था। यद्यपि वे अपना पांडित्य कभी निरावृत होने नहीं देते थे , परन्तु यदि कोई किसी विषय से गलत मंत्र उद्धृत कर रहा हो तो वह जाहे कितना भी ख्यतिप्राप्त विद्वान क्यों न हो, वे उसे डाँट देते थे और सही मंत्र उद्धृत कर उसकी भूल ठीक करते थे। ऐसा करने में उनमें कोई दुर्भावना नहीं होती थी, वे ऐसी चीजें सहन नहीं कर पाते थे।

जब वे मरण शैया पर पडे॰ थे तो मेरे पिताजी ने एक मंत्र पढ॰। बाबा बोलने की स्थिति में नहीं थे परन्तु उन्होंने मेरे पिताजी को डाँटते हुए घरघराती आवाज में शुद्ध मंत्र बताया और उसके बाद अपनी आँखें सदा के लिए मूंद लीं।

वे दृश्य और आदृश्य दो लोकों के निवासी थे। मैं जनता था वे अपनी बन्द आँखों की किसी विराट दुनिया के लोगों के बीच होंगे।

किसी के मरने के बाद लोगों में उसे जलाने की बहुत जल्दवाजी होती है , किन्तु केवल हृदय गति रुक जाने से ही मौत नहीं हो जाती। अपने बाबा के मरने के बाद मैंने उन्हें काफी देर तक श्मशान ले जाने नहीं दिया था।

मैं जनता था, यह आदमी अभी भीतर जीवित है।

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