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Sunday, August 7, 2011

yaad Aaataa Hai Gujaraa Jamaanaa 36

याद आता है गुजरा जमाना 36

मदनमोहन तरुण

तो, ले तैर !

मेरे ननिहाल में बच्चे , बूढे॰ , जवान , स्त्री - पुरुष , हर किसी को तैरना आता था , मुझे छोड॰ कर। टेहटा स्टेशन से कलानौर आने के रास्ते में एक नदी पड॰ती थी , जिसमें पनी सदा इतना जरूर रहता था कि उसे पार करते समय बीच में कभी थोडा॰ तैरना भी पड॰ता था। मेरे नाना खडे॰ - खडे तैर लेते थे। अगर मैं कभी उनके साथ जाता तो बस सहारे से उनकी पीठ पकडे॰ रहता और नदी पार कर जाता।

मेरे मामा जी ने मुझे तैराकी सिखाने हर कोशिश की , परन्तु वे सफल नहीं हुए। कई बार सीख जाने के बावजूद मैं हाथ या पाँव की कोई - न - कोई ऐसी भूल कर देता कि डूबने लगता। मामा जी बहुत चिढ॰ जाते और सिखाना बन्द कर देते मगर कुछ दिनों के बाद उन्हें अपनी असफलता पर गुस्सा आता और वे मुझे दुबारा नदी ले जाकर सिखाने लगते। मैं पानी से डरता नहीं था, परन्तु मुझे सिखाने का उनका कोई प्रयास सफल नहीं हुआ। इस असफलता का क्रोध उनके भीतर कहीं - न- कहीं अवश्य बना रहा। कुछ दिनों बाद मै माँ के साथ जहानाबाद चला गया।

यह करीब दस साल बाद की बात है। मैं जहानाबाद के बाहर पढ॰ रहा था और गर्मी की छुट्टी में घर आया हुआ था। इसी बीच ,एक दिन, मामा जी पटना से जहानाबाद आए। वे पटना में ही नौकरी करते थे। जहानाबाद से हमलोगों नेकलानौर चलने का कार्यक्रम बनाया।तब मेरे नानी- नाना जीवित थे और कलानौर में ही रहते थे , बाद में मामा जी उन्हें भि अपने साथ पटना ले गये। कैर, तो इस बार जब हम टेहटा से नदी किनारे पहुँचे तो देखा कि नदी पार करने के लिए एक व्यवस्था की गयी है। दो सीलबन्द ड्रमों को रस्सी से बाँध कर जोड॰ दिआ गया है और उसके के दोनों सिरों से मोटा रस्सा बँधा कर रस्सों के सिरों को दोनों तटों के दो पेडों से बाँध दिआ गया है।ड्रम पर बैठ जाइए और जिस ओर जाना हो उस ओर का रस्सा खींचते जाइए और नदी के पार ! उस नौका पर दो से अधिक लोग नहीं बैठ सकते थे। मैंने उस नाव से नदी पार किआ और मामा जी ने तैरते हुए।

हम कलानौर पहुँच गये। आषाढ॰ का महीना था।आकाश पर काले - काले बादल मँढ॰रा रहे थे। नानी ने कहा ' आज जोरों की वर्षा होगी।दोपहर तक सचमुच आकाश में नया शमा बँध गया। गहरे काले रंग के मेघों ने सूरज की तेजस्विता की सीमाएँ बताकर पूरे आकाश पर अपना आधिपत्य जमा लिया और लगे सब के सब चुनौतीपूर्ण आवाज में गर्जन - तर्जन करने। लगता था वे अपने सम्राट का अभिषेक करनेवाले थे।आकाश शंख , घंटे - घडि॰याल की आवाजों से निनादित हो उठा। बिजली चमकने लगी। दिन में ही रात का दृश्य उपस्थित हो गया। थोडीं ही देर में पानी की बडी॰ - बडी॰ बून्दें टपाटप बरसने लगी।और फिर बिजली की चमक - दमक के साथ घनघोर वर्षा शुरू हो गयी। पानी दो दिनों तक लगातार बरसता रहा।तीसरे दिन जब आकाश खुला तो किसी ने चिल्लाते हुए गली से घोषणा की - ,नदी में बाढ॰ आ गयी है।' हम दौडे॰ - दौडे॰ नदी किनारे पहुँच गये।सूर्य मंदिर की सीढि॰याँ नदी में डूब चुकी थीं। अथाह पानी से बौराई नदी पागलों - सी अपने दोनों तटों की सीमाएँ पार कर बेतहाशा भागी चली जा रही थी।कोमल प्रवाहवाली इस नदी का यह विकराल बल -संयुत महाघोष करता स्वरूप देखने लायक ही नहीं था, आविस्मरणीय भी था। इस भयंकर बाढ॰ में भी मामू के कई मित्र नदी में छलांगें लगा कर तैराकी का मजा ले रहे थे। यहाँ तक की गाँव के किशोर भी। अब मामा जी से रहा नहीं गया वे जिस कपडे॰ में आये थे , वही पहने नदी में कूद पडे॰ और लगे तैराकी का मजा लेने।लोग जिस जगह से नदी में कूदते वहाँ से काफी दूर जाकर तट पर आ पाते।नदी की तेज धार उन्हें बहाकर काफी दूर तक लिए चली जाती थी।

मैं तट पर खडा॰ लोगों की तैराकी का मजा ले रहा था किन्तु मन में कहीं इस बात का गहरा मलाल था कि मैं स्वयं नहीं तैर रहा हूँ।

तभी अचानक मामू पीछे से आए और कहा -' आखिर तुमने तैरना नहीं ही सीखा न !' मैंने नकारात्मक गर्दन हिलाई। तब मामा जी ने न आव देखा ताव मुझे पानी में तट से जोरों से धक्का देते हुए धकेल दिआ। क्षणभर बाद ही मैं नदी के अथाह जल में ऊबडूब करता हुआ बहा जा रहा था। पानी की तेज धार मुझे पानी के अन्दर जाने नहीं दे रही थी । मामाजी और उनके मित्र किनारे से मेरे साथ भागे चले जा रहे थे और चिल्ला रहे थे ' पैर जोर - जोर से चलाओ। चलाते रहो ... चलाते ही रहो ... .' बहुत देर तक तो मैं उनकी आवाज ही नहीं सुन सका मगर जब सुना तो मैं अपने पाँव पटकने लगा।थोडी॰ देर में अचम्भा हुआ। मैंतो पानी में तैर रहा था। मामा जी अपने मित्रों के साथ पूरे जोश में चिल्लाए -' तैरते रहो... तैरते रहो... ' और मैं तैरता रहा और तट की ओर आने का प्रयास करता रहा। जैसे ही मैं तट के कुछ पास आया , मामाजी पानी में कूद पडे॰ और खींचते हुए मुझे बाहर ले गये। आज वे बहुत खुश थे ,उनकी शिक्षा सफल हो चुकी थी। सबने मेरी बहुत तारीफ की । अब मुझमें इतना साहस आ गया था कि मैं दोबारा कूद कर नदी में बहने और तैरने लगा।

प्रकृति कई काम हमारे भीतर चुपचाप करती रहती है।हमने अपने जिन प्रयासों को व्यर्थ समझ लिआ था वे हमारे भीतर कहीं तेजी से फूल - फल कर पनप रही थीं और संकट के समय में प्रकट हो गयीं।

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