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Friday, April 15, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 32

याद आता है गुजरा जमाना 32

मदनमोहन तरुण

साहित्यकार नहीं, दारोगा चाहिए

चालीस से भी अधिक वर्ष बीत चुके हैं, परन्तु अभी तक सब कुछ स्पष्टतः याद है।

2 अगस्त 1962 का वर्षा की फुहारों में भींगा-भींगा दिन था। आचार्य शिवपूजन सहाय का 1925 में प्रथम बार प्रकाशित एकमात्र उपन्यास ’देहाती दुनिया’ समाप्त करते-करते मैं इतना अभिभूत हो उठा कि उसके लेखक से प्रत्यक्षतः मिलने की इच्छा का निवारण नहीं कर सका। भाषा की ऐसी निरावृत सहजता, चपल-चुहल भरी अभिव्यक्ति, फिर भी आद्यंत प्रशांत विदग्धता का यह मानो प्रथम साक्षात्कार था। पूरा ग्रामीण जीवन मानो अपने समस्त आंतः एवं बहिर्परिवेश की समग्र जीवंतता के साथ स्फूर्त हो उठा था।

मन में विचार आया कैसा होगा यह मिट्टी की सोंधी गंध की तरह अपने इस पूरे सृजन में व्याप्त लेखक! मतवाला मण्डल के यशस्वी सदस्य के रूप में अपने सम्पादन कौशल और अपनी रचना धार्मिता के प्रति समर्पित आचार्य शिवपूजन सहाय के बारे में मुझे जानकारी थी, किन्तु- देहाती दुनिया- की तो एक अलग ही दुनिया थी। उसके चितेरे को देखने की लालसा को दबा पाना असंभव था।

आचार्य जी उन दिनों पटना में रहते थे। पता लेकर दूसरे ही दिन प्रातःकाल मैंने उनका दरवाजा खटखटा दिया। थोड़ी ही देर बाद नाटे कद के अत्यंत गौरवर्ण, गंजी पहने और कमर में अॅंगोछी लपेटे एक वयोवृद्ध सज्जन ने दरवाजा खोला। लगता था अभी-अभी स्नान करके निवृत्त हुए हों। पूरे चेहरे के आत्मीय प्रसार में पतले-पतले होठों के ऊपर से गुजरती नासिका के दोनों तटों पर उनकी ऑंखें अपनी पूरी उद्वीप्ति से कह रह थीं- भला और कौन हो सकते हैं- आचार्य शिवपूजन सहाय! मैंने करबद्ध विनम्रता से अपनी प्रणति अर्पित करते हुए उनके दर्शनार्थ आने का अपना अभिप्रायः व्यक्त किया। उन्होंने मृदुल आत्मीयतापूर्वक मेरा स्वागत करते हुए पास ही पड़ी हुई चौकी पर बिठाया। चौकी पर दरी बिछी थी। उस पर हिन्दी पत्रिकाओं के कुछ ताजा अंक रखे थे। आचार्य जी मुझे बिठा कर थोड़ी देर के लिए भीतर चले गये। तनिक देर बाद एक युवक थाल में ठेकुआ और लडुआ (ठेकुआ आटे में गुड़ या चीनी मिलाकर घी में तल कर बनाया जाता है तथा लडुआ चावल के आटे में चीनी या गुड़ मिलाकर बनाया जाता है) लिए आए और सामने रखकर भोजपुरी में बोले-’तब तक खाइए, वे अभी आते हैं’ कहकर युवक चले गये। मैं ठेकुआ और लडुआ खाने लगा। कुछ ही देर बाद आचार्य जी सफ्फाक धोती-कुर्ता पहने बाहर आए और सामने चौकी पर बैठ गए। लगा एक पूरा युग सामने आकर थम गया। राजनीति और साहित्य की हलचलों से भरा युग। तब साहित्य कद में राजनीति से किसी भी तरह छोटा नहीं था। लोग गाँधी जी को जानते थे तो प्रेमचन्द और रवीन्द्र की भी उतनी ही खबर रखते थे। हिंदी पत्रकारिता स्वाधीनता संग्राम का प्रतीक बन चुकी थी। चारों ओर असाधारण जागृति थी। हर किसी की आँखों में नूतन भविष्य का स्वप्न तरंगित हो रहा था। उसी युग के सुदृढ़ स्तम्भों में से एक थे आचार्य शिवपूजन सहाय, जिन्होंने हिन्दी के तेजस्वी क्रांतिपुरुष निराला के समग्र संघर्ष को अपनी आँखों से देखा ही नहीं था, उसकी साँस से भी परिचित थे। ’कामायनी’ की प्रथम हस्तलिखित प्रति से गुजरने का आमंत्रण दिया था प्रसाद जी ने आचार्य को और उन्होंने प्रसाद जी को तत्संबंधी अपने कुछ सुझाव भी दिए थे जिनमें से कुछ को प्रसाद जी ने स्वीकार भी किया था।

आचार्य जी से बातें होने लगी। इस उम्र में भी उनकी वाणी में एक खनक थी। उस युग की चर्चा कुछ ऐसी अविरल भावुकता से चली कि ’देहाती हुनिया’ वाला प्रसंग यों ही पड़ा रह गया। बल्कि, वह बात ध्यान में आयी ही नहीं। उन दिनों मुझे लेखकों और कवियों की बहुत-सी पंक्तियाँ याद रहती थीं, जो प्रसंग आते ही स्वयम् निकल पड़ती थी। पता नहीं क्यों आचार्य जी मुझसे बहुत प्रभावित हुए। उन दिनों मेरी कुछेक कविताएँ और एकाध तीखी टिप्पणियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थी। यह जानकर कि मैं कविता भी लिखता हूँ उन्होंने एकाध कविता सुनाने को कहा। सुनकर उन्होंने कहा कि ’’अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। आज की कविताएँ मेरी समझ में नहीं आतीं, परन्तु बड़ी संख्या में लोग लिख रहे हैं, पत्रिकाओं में वे छप रही हैं। अन्य लोग उसका रस अवश्य ही लेते होंगे।’’

कहकर वे तनिक देर चुप रहे। दूर बाहर की ओर देखते रहे फिर बोले- ’’काव्य-रचना और साहित्य -सृजन तो ठीक है, परन्तु मैं आज के युवकों से आशा करता हूँ कि वे समर्पित एवं ईमानदार प्रशासक के रूप में सामने आएँ। आज साहित्यकार से अधिक अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित दारोगा की आवश्यकता है।“

मैं चौंका। भौंचक्क उनकी ओर ताकता रह गया। क्षण भर पश्चात् वे पुनः बोले- ’’आज की स्थितियों को देखकर मन खिन्न हो उठता है। चारों ओर अराजकता-सी फैली है। शरीफ लोगों का जीना कठिन हो उठा है स्त्रियाँ शाम को अकेले घर से बाहर नहीं निकल सकतीं। भाई-भतीजावाद का बोलवाला है। युवकों में बेकारी और निराशा फैली हुई है। हम लोग किसी प्रकार अपनी इज्जत बचाए हुए हैं। गरीबों की कोई सुनने वाला नहीं है। रोज चोरी-डकैती हो रही है। हुल्लड़बाजी है।’’ फिर तनिक थमकर बोले- ’’मैं आप जैसे साहित्य के क्षेत्र में महत्वाकांक्षा रखने वाले युवकों को निराश करना नहीं चाहता, परन्तु मैं फिर कहता हूँ आज देश को कवियों और लेखकों से अधिक अच्छे दरोगा की आवश्यकता है जो दूसरों का दुख-दर्द समझ सके’’। उस समय मुझे उनकी बातें सुनकर ठेस-सी लगी थी। शब्दों के संसार के जुझारू महारथियों की लेखनी के प्रभाव से पूर्णतः परिचित इस लेखक के साथ आखिर कौन-सी ऐसी घटना घटित हो गयी कि साहित्य की शक्ति के प्रति उनकी आस्था इतनी डगमगा उठी है कि वह साहित्यकार की जगह आज दारोगा की प्रतीक्षा कर रहा है।

सोचता हूँ आज यदि वे जीवित होते तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती। क्या वह मनीषी अपनी चमकती हुई आँखों से आने वाले युगों की भयावह छाया नहीं देख रहा था?

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