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Saturday, April 9, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 29

याद आता है गुजरा जमाना - 29

मदनमोहन तरुण

जहानाबाद के वे दिन - 3

जहानाबाद की राजनीति में उनदिनों काँग्रेस का बोलवाला था।फिदा हुसैन साहब उसके अत्यन्त लोकप्रिय नेता थे। उनका कद लम्बा था। नाक लम्बी और ऊँची। वे खादी का स्वच्छ कुर्ता - धोती , जवाहर कट बंडी ,टोपी और चप्पल पहनते थे। वे स्वाधीनता संग्राम में गाँधीजी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम कर चुके थे ।उनकी छवि एक ईमादार और लोकहितकारी नेता की थी। जनता से उनका गहरा लगाव था और वे उनके सच्चे हितैषी थे। उन्होंने जीवनपर्यंत सादा जीवन बिताया तथा आर्थिक तंगी में रहे। उनके बेटों को भी यह कष्ट झेलना पडा॰। वे हमारे परिवार के बहुत निकट थे। उनके निधन के करीब तीस से ज्यादा वर्ष बीत चुके हैं , परन्तु उनके परिवार से हमारा सम्बन्ध अब भी कायम है। दिल्ली में बडे॰कद के नेता उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानते थे।

गाँधीजी के देहावसान के दिन शहर के अधिकतम लोगों ने अपना सिर मुड॰वाया था।ग्यारह दिनों तक घरों मे सादा भोजन बनता रहा और लोग शोक मनाते रहे ।

काँग्रेस के अलावा वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल की शाखा , ठाकुरवाडी॰ के पास लगती थी, जिसमें इसके सहभागियों को शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाता था। वे लोग एक - दूसरे के नाम के पीछे 'जी' लगाकर बुलाया करते थे। उनके बीच एक दूसरे के प्रति अनुशासनपूर्ण एकत्व था। वे बहुत लोकप्रिय नहीं थे।

शहर में मुख्य सांस्कृतिक गतिविधि दुर्गापूजा और जन्माष्टमी के अवसर पर होती थी।दुर्गापूजा में शहर के दक्षिणी सिरे पर दुर्गा की विशाल मूर्ति बिठाई जाती । वहीं दस दिनों के लिए मेला लगता था , जहाँ हर तरह की चीजें मिल जाती थी। उसे देखने के लिए काफी भीड॰ उमडा॰ करती थी।रात में यहाँ कानपुर की नौटंकी पार्टी का ड्रामा होता था ,जिसे देखने के लिए खूब भीड॰ जमती थी। इसमें आसपास के गाँवों के लोग भी भाग लेते थे। नाटक रातभर चलते थे और हजारों लोग बिना सोए उसका आनन्द उठाते थे ।यह सिलसिला पूरे दस दिनो तक चलता था। मंचपर खूब बडा॰ और ऊँचा हारमोनियम रहता जिसकी आवाज दूर - दूर तक गूँजती थी और पास रखे नगाडे॰ के पास कोयले की आग जलती रहती थी, जिससे जाडे॰ की कनकनाती रातों में भी उसका चमडा॰ तना रहता और उससे किडि॰क - किडि॰क धाँ की मोहक और ऊँची आवाज निकती , जो लोगों को दूर - दूर तक सुनाई पड॰ती थी।उनदिनों माइक नहीं होते थे इसलिए नाटक के पात्र जोर - जोर से संवाद बोलते थे ,जिससे सभी उसे सुन सकें।समान्यतः 'लैला - मजनू और शीरी - फरहाद , सुलताना डाकू आदि नाटक होते। बीच - बीच में नाच भी होता था।उनके संवाद रोमानी, जोशीले और शायराना होते थे जिसके अंत में नगाडे॰ की थाप उसे अधिक रोचकयह बना देती थी। अभिनेत्रियों के साथ उनके विदूषकों के संवाद कई बार अश्लील होते थे ,परन्तु ग्रामीण दर्शकों को इसमें मजा आता था। जो वे दैनिक जीवन में नहीं कर सकते थे , उसे मंचपर अभिनेताओं द्वारा सम्पन्न होते देख कर उन्हें राहत मिलती थी।

दुर्गापूजा का यह अवसर जहानाबाद को नई चेतना से भर देता था।

इसके साथ ही जन्माष्टमी का त्योहार भी मनाया जाता था। इसका सर्वप्रमुख आयोजन लक्ष्मी नारायण पाण्डेय जी के बैठकखाने पर होता।लक्ष्मीनारायण पांडे स्वाधीनता संग्राम में भाग ले चुके थे। वे सरदार भगत सिंह के अनुयायी थे। उनके बैठकखाने की एक उल्लेखनीय विशेषता थी वहाँ गमलों में लगाए क्रोटन के पौधों की विविधता।उनकी पत्तियों का रंग टहाका चमकीला रहता था ।लक्ष्मी जी सवयं उनकी देखभाल करते थे। वे सबेरे स्नान करते समय कई बालटी पानी से उनकी पत्ती - पत्ती धोकर साफ करते थे।

वे सबेरे -सबेरे घंटो दणड-बैठक करते और मुग्दर भाँजते थे।मैंने उन्हे बोलते हुए बहुत कम सुना।खादी धोती - कुर्ता में सजे लक्ष्मी जी दिन में कभी - कभी बडी खास अदा में सिगरेट पीते। वे मेरे पिताजी के निकटतम मित्रों में थे।वे एक सक्रिय समाजसेवी थे एवं जहानाबाद नोटिफायड एरिया के सदस्य। उनके जमाने में जहानाबाद की सड॰कें हमेशा साफ रहती थीं।

वे अच्छे अभिनेता भी थे। जन्माष्टमी के अवसर पर वहाँ नाटक भी होता था जिसमें स्थानीय प्रतिभाएँ भाग लेती थीं। लखन जी का तांडव नृत्य मैं आज भी नहीं भूल पाया हूँ। यही चन्द्रदेव शर्मा जी का नाटक 'तुलसीदास' खेला गया था।निर्देशक थे लक्ष्मी नारायण पांडे। इसका एक दृश्य मुझे अब भी याद है , जिसमें घनघोर वर्षा की रात में तुलसीदास अपनी पत्नी से मिलने पहुँचते हैं और घर का दरवाजा बन्द देखकर एक साँप को रस्सी समझ कर उसी के सहारे अपनी पत्नी रत्नावली के कक्ष में प्रवेश करते हैं। इस भाग के दृश्यांकन के लिए सारी रोशनी बुझा दी गयी थी , तबले की आवाज से बादलों के गर्जन का चित्रण किया गया था और टार्च के सहारे बिजली चमकने का जीवंत दृश्यांकन किया गया था। इसी मंच पर बाद में मेरे निर्देशन में प्रसाद जी का प्रसिद्ध नाटक ' चन्द्रगुप्त' खेला गया था। इसमें मैने चाणक्य का अभिनय किया था, जिसे बहुत सराहा गया था।

उनदिनों जहानाबाद में मनोरंजन के साधनों में एक मित्र मंडल कल्ब था जहाँ कुछ सम्भ्रान्त लोग रात में मिलते - जुलते थे। अबतक जहानाबाद में कोई सिनेमा हाँल नहीं था। लोग फिल्म देखने पटना जाते थे बाबूजी के साथ एकाधबार मैं भी गया था।परन्तु सिनेमा से अधिक मुझे एलीफिन्सटन सिनेमा हाँल के पास का सोडा फउन्टेन होतल बहुत अच्चा लगा।इसके बेटर खुब सजे धजे रहते और बडी॰ खास अदा के साथ सेवा देत थे। होटल सजा धजा और हरियाली से भरा था।

उनदिनों पर्ल सिनेमा में प्रदीप कुमार एवं बैजयंतीमाला द्वारा अभिनीत फिल्म ' नागिन' चल रही थी। इसमें बीन पर निकाली धुन बहुत लोकप्रिय हुई थी। इस फिल्म में बारह गाने थे जिनमें 'मन डोले ,मेरा तन डोले , मेरे दिल का गया करा रे ,ये कौन बजाए बाँसुरिया' तथा 'छोड॰ दे पतंग मेरी छोड॰ दे ' गाने बहुत लोकप्रिय हुए थे। यह फिल्म पर्ल में तीन साल चली थी। मैं अपनी माँ को यह फिल्म दिखाने पटना ले गया था। मेरी माँ को यह फिल्म इतनी पसंद आई कि मुझे उसके साथ बारह दिन पटना जाना पडा॰ ।

उन दिनों देश के कई वरिष्ठ लेखक पटना में रहते थे ।पटना देश की साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। आचार्य रामावतार शर्मा , आचार्य शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, रामववृक्ष बेनीपुरी, रामदयाल पाण्डेय, गोपाल सिंह नेपाली , नलिनविलोचन शर्मा,आरसी प्रसाद सिंह,लक्मीनारायण सुधांशु, जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' आदि हिन्दी साहित्य के गौरव थे।आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री मुजफ्परपुर में रहते थे और दरभंगा में पंडित गिरीन्द्र मोहन मिश्र , जो पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित 'सरस्वती 'पत्रिका के वरिष्ठ लेखकों में थे।उनदिनों वे हिन्दी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखते थे। मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त है। जब मैं उनसे मिला था तब उनकी अवस्था पचासी साल से ऊपर थी। वे लेखक होने के आलावा अपने समय के विख्यात विधिवेत्ता थे। स्वाधीनता संग्राम में वे महात्मा गाँधी के निकटस्थों में थे।

पटना से उनदिनों आचार्य शिवपूजन सहाय के सम्पादन में ' साहित्य' और 'परिषद पत्रिका' जैसी शोधपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था। वहीं से रामवृक्ष बेनीपुरी जी के सम्पादन में 'नई धारा' और लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी के सम्पादन में 'अवंतिका' का प्रकाशन हुआ। लहेरिया सराय से रामलोचन शरण जी की लेखनी अबाध रूप से चल रही थी।यहीं से बच्चों की लाजबाव पत्रिका 'बालक' और 'चुन्नू मुन्नू' का प्रकाशन होता था।दैनिक समाचारपत्रों में पटना से 'आर्यावर्त' ,'दैनिक विश्वामित्र', 'नवराष्ट्र' आदि का प्रकाशन होता था।

पटना में दुर्गापूजा का समारोह बहुत धूमधाम से मनाया जाता था। इस अवसर पर यहाँ देश के वरिष्ठ गायक और वादक आते थे।यहीं मैंने विसमिल्ला खान, भीमसेन जोशी जैसे लोगों को आमने - सामने सुना था। यही हमने आस्सी साल के कंठे महाराज और युवक गोदई महाराज की तबले पर असाधारण युगलबन्दी सुनी थी।सुलताना परवीन उनदिनों युवा थीं ।इन्हे उनदिनों जितना सुनना सुखद था ,उतना ही उन्हें देखना भी। बाद में उन्हों ने मोटापा बढा॰कर अपने श्रोताओं एवं दर्शकों के साथ बडा॰ अन्याय किया।

ये समारोह रातभर चलते और हम दीवानगी से जाग - जाग कर इनका आनन्द उठाते थे। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके श्रोता कहीं - कहीं पचास हजार से ऊपर की संख्या में होते , लकिन कहीं से कोई 'चूं' तक की आवाज नहीं होती थी।मुझे इस समय का एक प्रसंग अब भी याद है। स्टेशन के पास ही के मंच से विसिल्ला खां साहब शहनाई बजा रहे थे। हजारों लोग आंखें मूँदे और सिर हिलाते हुए उसका लुत्फ उठा रहे थे, तभी एक सज्जन वहाँ से चलने को बेआवाज उठे , तभी विसमिल्ला खाँ साहब की आवाज आई -'हमसे कोई गुस्तखी तो नहीं हो गयी हुजूर!' यह सुनना क्या था कि वे सज्जन चुपचाप बैठ गये और शहनाई की आवाज फिर उसी तरन्नुम के साथ चल निकली।

लोहा सिंह

उनदिनों पटना रेडियो स्टेशन के चौपाल कार्क्रम से जिसदिन 'लोहा सिंह ' धारावाहिक नाटक का प्रसारण होता , उसदिन जहानाबाद ही क्या पूरे बिहार के गली - बजारों में सन्नाटा छा जाता था। हम पूरे परिवार केलोग रेडियो को घेर कर बैठ जाते। बी एन काँलेज के हिन्दी के तत्कालीन प्रोफेसर रामेश्वर सिंह कश्यप लिखित एवं अभिनीत 'लोहा सिंह' केरीकेचर शैली का नाटक था जिसमें एक रिटायर्ड फौजी के दीवानगी भरे चरित्र का मनोरंजक एवं आत्यंतिक चित्रण किया गया था।हिन्दी एवं भोजपुरी मिश्रित , व्याकरण - स्खलित इसकी भाषा इसे और भी रोचक बनाती थी। जोश में जब लोहा सिंह द्वितीय विश्वयुद्ध मेम अपने कारनामोम की चर्चा करने लगते तो उनकी भाषा स्त्रीलिंग - पुलिग के सारे बन्धन तोड॰ देती थी। वहाँ की अग्रेज मेम की याद आते ही उनकी रसिकता भरी दीवानगी बढ॰ जाती और अपनी पत्नी से उनकी नोकझोंक बढ॰ जाती थी।रिटायर्ड फौजी 'लोहा सिंह' के चरित्र में यथार्थ और कल्पना गड्डमड्ड होकर उसे और भी मोहक बना देते हैं। वर्षों बीत गये मगर इस नाटक की खुमारी मुझ पर आज भी है। कईबार इसके डायलाँग मेरे भीतर आज भी गूँजते हैं। मैने उसके बाद ऐसा नाटक न तो देखा, न सुना ।

कल्लू पहलवान

उन दिनों के जहानाबाद की कहानी में कमी रह जाएगी यदि कल्लू पहलवान की चर्चा न की जाए। वे जहानाबाद के सुप्रतिष्ठत पहलवान थे।उन्होंने एक प्रसिद्ध पहलवान को पटक कर यह प्रतिष्ठा प्राप्त की थी।उस विशेष विजय के क्षणों की याद से उनकी आँखें बुषा॰पे में भी चमक उठती थीं। उकदिन हमलोगों के बहुत आग्रह करने पर उन्होंने अपनी विजय की वह गाथा सुनाई -' सबेरे करीब आठ बजे का समय होगा। मैं अपने अखाडे में अपने शिष्यों को दण्ड - बैठक और कुशती के दाव सिखा रहा था।तभी एक ख्यातिप्राप्त पहलवान वहाँ पधारे। मैंने उनका यथोचित स्वागत सत्कार किया।वे मुझसे करीब दुगुने लम्बे - चौडे॰ शरीर के थे।चौडी॰ कसी छाती, प्रचण्ड भुजदण्ड, मोटी जाँघें जैसेकोई घूमता - फिरता शेर हो।मेरे अखाडे॰ मे बजरंगबली की एक मूर्ती थी। सभी आनेवाले उन्हें प्रणाम आवश्य करते थे।मऔंने उस पहलवान में दो बातें गौर कीं। उन्होंने मेरे अखाडे॰ में आते या जाते समय बजरंगबली के सामने अपना सिर नहीं नवाया और मेरे स्वागत - सत्कार पर कोई समान्य - सी औपचारिकता भी नहीं दिखाई। मेरी ोर वे सदा उपेक्षा और अवहेलना से देखते रहे।मुझे बुरा लग रहा था , फिर भी अपना मेहमान समझ कर मैंने उनके सम्मान मेम कोई कमी नहीं की।

जहानाबाद और उसके आसपास मेरे शिष्यों की अच्छी संख्या थी। इसलिए वहाँ जो भी आता वह मेरे पाँ छूता था। वह पहलवान बहुत देर तक यह सब देखता रहा। अचानक उसकी आँखों में प्तिहिंसा - सी जाग उठी। वह उठ खडा॰ हुआ और उसने मुझे चुनौती देते हुए कहा - 'बहुत बडा॰ पहलवान समझते हो अपने को? अगर दम है तो मुझसे एक - दो हाथ करके देखो।' 'मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था। सुनकर मैं आवाक रह गया। मेरे रोंगटे खडे॰ हो गये।' उस पहलवान ने वहाँ से चलते हुए कहा -' इस गुरुपूर्णिमा को इसी अखाडे॰ में मैं तुम्हें पछाडूँ॰गा ,तैयार रहना।'

यह बात तुरत जहानबाद और आसपास में फैल गयी कि एक बहुत बडे॰ पहलवान से इस गुरु पूर्णिमा को कल्लू की भिडं॰त होगी।वह पहलवान शरीर और बल में मुझसे दुगुना था यह बात मेरी समझ में आगयी थी।मुझे लगा मैंने आजतक जो भी प्रतिष्ठा अर्जित की है ,उसके शेष होने का समय आ गया है। मगर चुनौती, चुनौती है। अगर मैं लड८ने से भाग जाऊँ , तब भी बेइज्ती है और लड॰कर हार जाऊँ तब भी यह शान बचनेवाली नहीं है।मैने बजरंगबली की ओर देखा और यह संकल्प कर लिया कि यह युद्ध मैं अवश्य लडूँ॰गा।यह मेरे प्रभु की इच्छा है।गुरुपूर्णिमा दो दिनों के बाद ही थी।आखिर वह दिन भी आगया। मेरे अखाडे॰ के आसपास सबेरे से ही भीड॰ लगने लगी।

थोडी॰ देर में हम एक - दूसरे के आमने साने थे। मैंने बजरंगबली के सामने अपना सिर नवाया और अखाडे॰ कि पवित्र मिट्टी सिर से लगाकर ताल ठोक दिया।अब मेरे सामने कोई बडा॰ पहलवान खडा॰ नहीं था , एक ऐसा इंसान खडा॰ था जिसने हमारे बजरंगली के सामने अपना माथा नहीं टेका था और हर प्रकार से मेरी अवहेलना की थी। वह पहलवान निशचिंत था कि वह मुझे पटक ही देगा, परन्तु ऊखाडे॰ मेंमैंने उसे सम्हलने का जरा भी मौका नहीं दिया और दौड॰ते हुए मैंे उसकी कमर पकड॰ कर जोरों का झटका दिया। वह इसके लिए तैयर नहीं था । जबतक वह सम्हलता ततक मैंने अपनी पूरी ताकत लगाकर उसे उठालिया और घुमा कर जमीन पर दे मारा। वह आखाडे॰ में गिरा था। खुद मैं भी नहीं समझ पाया कि यह हुआ क्या,मैं जैसे होश में तब आया जब अखाडे॰ चारों ओर लोग उत्साह से चिल्ला रहे थे ' कल्लू पहलवान की जय' और वह पहलवान मेरे अखाडे॰ मे चित्तान पडा॰ समझ नहीं पारहा था कि आखिर यह सब कब और कैसे हो गया !मगर जो होना था सो हो गया। मै जीत चुका था। मैं जोरों से चिल्लया -' जय बजरंग बली ' और उनके चरणों पर लोट गया। उन्होंने मेरी लाज रख ली थी।'

जब मैंने उनकी चमत्कारपूर्ण जीत का कारण पूछा तो उन्होंने कहा -'मेरी जीत का कारण था मेरा त्वरित निर्णय और उसपर टूट पड॰ना और उसकी हार का कारण था उसका अहंकार जिससे वह लड॰ने की जगह यह सोच कर अखाडे॰ में खडा॰ था कि वह मुझे चुटकियों में पछाड॰ देगा। वह सोच रहा था , मैंने कर दिआ ।'

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