याद आताहै गुजरा जमाना 3
मदनमोहन तरुण
जटाधारी बाबा
मेरी नानी के घर के सामने एक ऊँचा - सा चौड़ा समतल था जिस पर पीपल का एक विशाल वृक्ष था।उस पीपल वृक्ष पर दिनभर विविध पक्षियों का कलकूजन होता रहता था। दिन में कई बार उड़ान भरते बगुलों का समूह नदी से मछलियों का भोग ग्रहण कर उड़ान भरता हुआ जब इस विशाल वृक्ष पर बैठता तो तो पूरा वृक्ष हरे और सफेद रंगों के सामंजस्य से एक असाधारण कलाकृति का रूप धारण कर लेता ।संध्या समय नीले आकाश के नीचे सफेद बगुले कभी धनुषाकार , कभी अर्ध- त्रिकोणाकार, कभी लम्बी पंक्ति में आड़ी - तिरछी एकरस रेखा में उड़ान भरते हुए अकाश को अपनी लीलारूपधारी रंगस्थली बना देते।यह पीपल वृक्ष प्रकृति के इन महान कालाकारों का आवास था।इसकी शाखाओं पर जहॉं विविध पक्षियों ने अपना आवास बना रखा था , वहीं इसकी विशाल मोटी जड़ों के पास एक रहस्यमय सन्यासी रहा करते थे जिनके सिर पर बड़ी - बड़ी जटाएँ थीं।वे कहीं नहीं जाते थे।शायद ही कोई जानता हो कि वे कब शौचादि के लिए भी जाते हैं।गॉव के लोग उनतक जो भी भोजन पहुँचा देते, वे उसे ही ग्रहण कर संतुष्ट रहते।कहते हैं एक बार वे कहीं से आए और इस वृक्ष के नीचे जो डेरा जमाया सो फिर और कहीं नहीं गये।नानी कहती थी मेरे जन्म के बाद उन्होंने अपनी गुदड़ी से एक चिथड़ा फाड़ कर दिया था जिसे आयुवृध्दि के लिए शुभ मान कर मुझे जन्तर के रूप में पहनाया गया था।उन्हें बोलते हुए किसी ने कभी नहीं सुना।उनके स्वभाव की इन्हीं विचित्रताओं के कारण लोग उन्हें कोई सिध्द सन्यासी मानते थे।मौन आदमी को असाधारण बना देता है फिर उनके आचरण में भी कुछ असाधारण विशेषताएँ थीं।चाहे हरहर बरसता बरसात हो , जाड़े की दलदलाती कनकनाहट या हू – हू कर मुँह से आग उगलता जेठ का महीना हो , वे हर मौसम में केवल एक लॅगोटी पहने नंग – धड़ंग पीपल की खोखल के पास , उसके तने से पीठ सटाए कभी बैठे रहते तो कभी लेटे रहते।अद्भुत थी उनकी साधना।उनकी लम्बी काया पर बरगद के छत्र सी उनकी जटाएँ उन्हें और भी रहस्यमय बनाती थीं।
किन्तु एक दिन एक अजीब से कोलाहल से कलानौर वासियों की नींद खुल गयी।लागों ने देखा कि जटाधारी बाबा लोटपोट कर रो रहे हैं।कभी वे खड़े होकर जोर – जोर से छाती पीटने लगते , कभी बैठ कर रोने लगते।अबतक पूरा गॉव उनके आसपास जमा हो चुका था।ऐसा दृश्य कलानौरवासियों ने पहले कभी नहीं देखा था।अतः लोग तरह - तरह की बातें करने लगे।किसी ने कहा इन्हें अपने किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु की सूचना मिली है , किसी ने कहा बिच्छू या किसी जहरीले कीड़े ने डंक मार दिया होगा उसी का विष चढ़ रहा है। अबतक हम उन्हें दूर से ही देख रहे था।वैसे भी कोई उनके पास जाता नहीं था या यों कहिए कि अपनी वर्जनापूर्ण दृष्टि से वे किसी को अपने पास फटकने नहीं देते थे।किन्तु आज स्थिति भिन्न थी।आज इस आकुल सन्यासी को दूसरों की सहायता की आवश्यकता थी।लोग एक – एक कर टीले पर चढ़ने लगे।सब को उनकी इस असामान्य विगलता का करण जानने और उनकी सहायता करने की उत्सुकता और बेचैनी थी।लोग उनके चारों ओर खड़े उनके छाती पीट – पीट कर रोने के कारणों का अन्दाज ही लगा रहे थे कि उन्होंने पीपल के पेड़ के आसपास कई चॉदी के इतस्ततः सिक्के और रुपयों के नोट बिखरे देखे।पेड़ के तने के विशाल खोखल के पास लाल मजबूत कपड़े के दो बोरे खुले पड़े थे जिनसे लिपट – लिपट कर जटाधारी बाबा रो रहे थे।लोग समझ नहीं पा रहे थे कि वृक्ष के चारों ओर चॉदी के सिक्कों और रुपयों के नोटों के बिखरे रहने का कारण क्या है ?
अपने पास लोगों को खड़ा देख कर बाबा और भी अधीरता से रोने लगे और एक – एक बोरे को खींच – खींच कर लोगों को दिखाते हुए बोले –‘अगर इसमें अपनी सारी सम्पत्ति न रखता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। धरती में गाड़ दिया होता तो सब बच जाता। मत मारी गयी थी हमारी।जिससे चिपक कर मैं जाड़ा – गर्मी यहॉं पडा, रहता था ,खाने – पीने की सुध नहीं रहती थी मुझे ,वर्षों नहाए बिना मेरे बाल लम्र्बी - लम्बी जटा बन गये , वही खॉटी चॉदी के सॅजोए सिक्के और ढेर सारे रुपये मुझे धोखा दे गये। कुछ भी न बचा। हाय ! नदी किनारे शौच में जरा -सा देरी हो गयी कि न जाने कौन पापी मेरा सब हर ले गया !’फिर वे जोर – जोर से रोने लगे और चोरों पर अपना अभिशाप बरसाने लगे ‘… अरे तेरी ऑंखें फूट जाएँ , अरे तेरे पाव टूट जाएँ, अरे तेरा पूरा परिवार मर जाए ।हाय ! मेरा सब लूट ले गया रे ! अब मैं किसके लिए जिऊँगा !’ जटाधारी बाबा के पास खड़ा पूरा गॉंव यह समझ नहीं पा रहा था कि वह अपनी प्रतिक्रिया किस प्रकार व्यक्त करे ? यह तो कोई और ही जटाधारी बाबा थे। कहते हैं महापुरुषों का मौन जब टूटता है तो उससे क्र्या क्या निकलेगा , कहना मुश्किल है।जटाधारी बाबा करीब सप्ताह भर वैसे ही बिना खाए –पिए छाती पीट – पीट कर रोते रहे और एक दिन सदा के लिए शांत हो गये।अब लोग समझ नहीं पा रहे थे कि बाबा का संस्कार किस रूप में किया जाए ? सन्यासी के रूप में या सामान्य आदमी के रूप में?
कलानौर से न जाने मेरी कितनी यादें जुड़ी हैं ,वहॉ जाने को भी मन बहुत तड़पता है परन्तु डोली …न्न … नहीं …नहीं … सो इस बार मैं माँ के साथ ननिहाल नहीं ही गया। मॉ के बिना सैदाबाद रुकने का यह मेरा पहला अनुभव था ,परन्तु मैंने तय कर लिया था कि चाहे जो भी हो जाए मैं मॉ के पास जाने के लिए रोऊँगा नहीं , यह मेरी इज्जत का सवाल था ।आखिर अब मैं बड़ा हो रहा था।
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Wow👏👏
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