याद आताहै गुजरा जमाना 5
मदनमोहन तरुण
जंगे आजादी
वह देश की पराधीनता का समय था। स्वाधीनता की लड़ाई पूरे देश में तेज हो चुकी थी। इसके साथ ही जनजागृति का कार्य भी आन्दोलन का रूप ले रहा था।दालान में बाहर की बैठक में बाबा के साथ लोगों की यही चर्चा सबसे ज्यादा चलती।सुन – सुन कर हम बच्चों में भी खूब जोश रहता। हमलोगों के खेल का एक विषय आजादी का आन्दोलन रहता। बाबा की एतद विषयक चर्चाओं को छोटका भइया अपने अनुसार ग्ढ़ कर उसे एक रूप दे देते और हमारा नया खेल बन जाता।आजादी के आन्दोलन का हमारा नया खेल प्रभातफेरी का खेल था।भइया सूरज उगने के पहले ही हमें जगा देते।घर से बड़ी सी लाठी लेकर उसे अपने खेत के बीच में गाड़ देते और उस पर अपनी गंजी टॉग देते।यह था हमारा राष्ट्रध्वज।मैं घर से अपने साथ एक थाली लेकर आ जाता और झंडा गड़ते ही उसे जोर – जोर से बजाने लगता।उसके बजते ही हमारे आठ – दस सेनानियों का बालदल आधी – पूरी नींद में आखें मिचमिचाते उस ध्वज को घेर कर खड़ा हो जाता।भइया ध्वज को सलामी देते हुए जोरों से चिल्लाते – ‘बन्दे मातरम’ और हम उनकी आवाज में आवाज मिलाते हुए पूरी ताकत से ‘ वन्दे मातरम ’ या ऐसा ही कुछ चिल्लाते थे।इसके बाद छोटका भइया ध्वज उठा कर आगे – आगे नारे लगाते हुए चल पड़ते –‘ अँगे्रजों भारत छोड़ दो’ और हम दुहराते ‘ हिन्दुस्तान हमारा है।’ पहले पहल हम अपने खेत से अपनी गली के मुहाने तक ही जाते थे परन्तु धीरे - धीरे हम अन्य मुहल्लों तक और बाद में पूरे गॉव की परिक्रमा तक जाने लगे।जैसे – जैसे हमारा जुलूस आगे बढ़ता वैसे – वैसे गॉव की दूसरी टोलियों के बच्चे भी उसमें शामिल होते जाते। इसी प्रभातफेरी के दौरान अपने गॉंव की गली – गली से हमारी पहचान हुई थी। अबतक यह केवल बच्चों की ही प्रभातफेरी थी परन्तु कुछ दिनों के पश्चात इसमें हमारे मुहल्ले के कुछ युवक भी शामिल होने लगे,परन्तु सबके नेता छोटका भइया ही रहे।अब बाबा भी झंडा गड़ते ही खेत के पास के कुएँ की मेड़ पर आकर बैठ जाते जिससे हमारा जोश और भी बढ़ जाता और हम अधिक जोर – शोर से नारा लगाते।हम बच्चे इस खेल के अलावा दोपहर में लाठी का घोड़ा दौड़ाते , उसे पानी पिलाते , उसकी पीठ सहालाते हुए उसे शाबाशी देते और कभी – बहादुरी दिखाने के लिए एक – दूसरे के घोड़े से लड़ाई भी ठान देते।हमारा दूसरा प्रिय खेल था गुल्ली – डंडा।शाम को हम बड़ी मुस्तैदी से लुक्का – चोरी का खेल खेलते।कभी – कभी खेल में इतने मशगूल होते कि घर जाना भूल जाते ।बाबा घर से पुकारते – पुकारते थक जाते और खुद बाहर आकर पकड़ ले जाते।किन्तु जिस खेल के लिए हम रात बीतने की प्रतीक्षा करते रहते वह था आजादी का खेल।
भइया की इन खेलों में कोई रुचि नहीं थी।वे हमेशा नयी – नयी योजनाएँ बनाते रहते।मुसलमानों के मुहल्ले में हमारे जुलूस से एक तनाव सा रहता अतः बाबा ने हमें उधर जाने से मना कर दिया।होली में मुसलमान युवक हमारे घर आकर फगुआ भी गाते तथा होली के रंग से भी उन्हें परहेज नहीं था , परन्तु हमारे इस खेल में कोई मुसलमान बच्चा नहीं आया,।वैसे मुसलमान बच्चों की पढ़ाई उनके मस्जिदवाले स्कूल में होती थी और हमारा स्कूल अलग था।दोनों की इस आपसी रहस्यमयता और दूरी का एक कारण यह भी था।
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