याद आता है गुजरा जमाना 11
मदनमोहन तरुण
गुरु देवो भव
मेरा घर गॉव के अन्यलोगों की तुलना में बहुत बड़ा था। बाहर का बरामदा शानदार था, जिसकी दीवारों पर हमेशा चूने की पुताई की चमक बनी रहती थी।सामने कई विशाल चौकियॉं रहतीं। बाबा ने यहाँ एक पुस्तकालय खुलवा दिया था जहॉ आकर लोग प्रेमचन्द और दयानन्द सरस्वती की कितावें पढ़ते थे। घर में हमेशा कोई न – कोई आयोजन होता ही रहता था।महाभारत और भागवत की कथा महीनों चलती और गॉव के लोग हर रात आकर बड़ी श्रध्दा से उसे सुनते और दूसरे दिन उन विषयों पर बातें भी करते थो।कभी सप्ताह भर राम के नाम का अटूट जाप चलता और अन्य गॉंवों के लोग भी उसमें शामिल होते। हमारे गॉव में एकाध ऐसे लोग भी थे जो करीब – करीब नहीं के बराबर शिक्षित थे, परन्तु उन्हें तुलसीदास का पूरा रामचरितमानस याद था।जब भी जीवन - समाज में किसी व्यवस्था – अव्यवस्था का प्रश्न उठता तो वे मानस की कोई चौपाई ,आदेश या सुझाव की तरह प्रस्तुत कर देते और सामान्यतःउसी के आधार पर कई निर्णय हो जाते। साहित्य और जीवन का यह गहरा सम्बन्ध देखते ही बनता था।निश्चित रूप से जीवन और साहित्य का यह सम्बन्ध मात्र उसके धर्म से जुड़ाव के कारण नहीं होता ।यह आता है उसके सत्याधार की उस विश्वसनीयता से जो हमारे जीवन को व्यवस्था देती है।इस विश्वसनीयता में अपने दृष्टांतों के साथ एक पूरी परम्परा यात्रा करती रहती है। उसमें पात्र ओर उसके स्रष्टा के व्यक्तित्व की शक्ति भी सन्निहित होती है।
इन आयोजनों में बाबा के गुरुजनों का आना एक विशेष अवसर होता। बाबा तब सबकुछ भूल कर उनकी सेवा में लग जाते।उनके स्नान करने के लिए स्वयं पानी भरते। स्नान के बाद खुद ही उनकी धोती साफ करते। घर में यद्यपि नौकरों की कमी नहीं थी , परन्तु गुरु की सेवा वे स्वयं करते।रात्रि काल में वे उनके पॉंव में तेल लगाते। दादी गुरुजी की पसंद का भोजन बनाती। घर में प्याज –लहसुन ऐसे भी नहीं आता था ,परन्तु इस बात को हर प्रकार से जताने की चेष्टा की जाती कि गुरुजी के आने से हम सभी अहोभाग्य हैं।बाबा गुरुजी के सामने अपने विद्यालय के दिनों के संस्मरण सुनाते। किस प्रकार वे भोजन बनाने के लिए लकड़ी तोड़ने जाते , फिर स्वयं ही भोजन भी बनाते।उन संस्मरणों में सबसे रोचक था रात्रिकालीन अध्ययन।सामान्यतः विद्यार्थीगण गोधूलिबेला के पूर्व तक ही अपना अध्ययनकार्य समाप्त कर लेते थे और रात्रिकाल में जल्दी ही शयन कर ब्राह्मबेला से अपना दैनिक कार्य आरंभ करते थे।बाबा अपने रात्रिकालीन अध्ययन के संस्मरण सुनाते हुए भावुक हो जाते ।जिस दिन उन्हें रात में अध्ययन करना होता उस रोज वे दिन में ही ढेर सारीसूखी पत्तियॉं जमा कर लेते और रात में अपने आगे आग जलाकर उसमें एक - एक पत्ती डालते जाते और उसी के आलोक में पढ़ते।घर आने की छुट्टी जल्दी नहीं मिलती थी। गुरु ही इस काल में माता - पिता की भूमिका में होते । गुरु के प्रति सम्मान का यह रूप सम्भवतः इसी निकटता और आत्मीयता का परिणाम था।
Copyright reserved by MadanMohan Tarun
No comments:
Post a Comment