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Thursday, February 24, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 13

याद आता है गुजरा जमाना 13

मदनमोहन तरुण

पर्व -त्योहार

होली का त्योहार हमारे गॉव का सबसे लोकप्रिय त्योहार था।जैसे ही फागुन की फगुनहट भरी हवा चलने लगती और सूखे पेड॰- पौधों में भीतर – हरियाली की सुरसुराहट जागने लगती वैसे – वैसे स्त्री - पुरुष सबके मन में एक नयी सनसनाहट जागने लगती।जाड़े की रजाई से निकल कर उनके बोल जाग उठते।आम में नये टूसे फूट पड़ते और बरस भर की मौन कोयल अपना पंचम छेड़ने की तैयारी करने लगती।

मेरे घर मे होली के गायन के सारे साजो सामान थे ।ढोलक , झाल , करताल।मेरे मित्र हरिनारायण जी के पिताजी गॉव के एकमात्र ढोलकिया थे।मगर वे एक नम्बर के आलसी आदमी थे।वे शाम के सात बजे ही सो जाते थे।उन्हें जगाना बहुत कठिन काम था। इन सारी बातों से चिढ़ कर गॉव के एकाध और लोगों ने भी ढोलक बजाने का अभ्यास किया था , परन्तु उसमें वह बात कहॉं जो अवध मिसिर के ढोलक की ताल में थी।अंततः हर प्रकार से उनकी नींद तुड़वाई जाती और अगर वे एक बार जग गये तो फिर जैसे उनके हाथ भी जाग जाते और ढोलक होली के बोलों पर रात भर ढुमकता रहता।

फगुआ की शुरूआत ढोलक और ढोलकिया की अबीर लगा कर पूजा से होती।पहली होली देवताओं के स्मरण से होती ताकि सबकुछ निर्विग्घ्न सम्पन्न हो –

तिरबेनिया में राम नेहाऽऽऽए , सुरुज उगे के बेरिया।होरी हो हो हो , होरी हो हो।

तिरबेनिया में राम जी नेहाए रामा सुरुज उगे के बेरिया। अहो तिरबेनिया हो अन्हुआरे।’

अब बोल तेज होने लगते। झाल और करताल की झनकार के साथ लोगों की मूड़ी पहले धीरे – धीरे फिर जोर – जोर से हिलने लगती।होली की लय को बनाए रखना कुछ थोड़े से लोगों का काम था बाकी तो बोल के नाम पर मजे लेने में लग जाते।इसमें जवान, वृध्द, बच्चे सभी रहते। स्त्रियॉ घर के भीतर से सुनती रहती।मेरा गायन आसमान फाड़ू आवाज में होता जिसका उद्देश्य था भीतर बैठी दादी को सुनाना कि मैं भी होली गाने में कम नहीं हूँ। एक आवाज और भी सबसे तेज होती ।वह थी नईम की जो शायद इतनी ऊँची आवाज में इसलिए गाता कि उसकी नई बीबी उसकी आवाज को सुन कर सराह सके। उसकी नई - नई शादी हुई थी।दादी दूसरे दिन ठुनकी मारती ‘ई नईममा अपनी मेहरारू को सुनाने के लिए आसमान चीरता है।

’भॅग की एक खेप चल जाने के बाद होली और भी गहरा जाती ,अब ईस – परमात्मा से हट कर रसीले बोल निकलने लगते।कुछ बुजुर्ग सावधान करते 'हॉ बच्चे भी हैं – जरा सम्हलके … मगर फिर होश पर होली का कब्जा हो जाता और बोल पर बोल निकलने लगते –

गोरिया पातरी ,जइसे लचके लउँगिया के डार …

निहुरी – निहुरी बहारे अँगनवा, हो गोरिया निहुरी।

निहुरी – निहुरी निहारे जोबनवा हो देवरा, निहुरीनिहारे जोबनवा।

भर फागुन बुढ़बा देबर लागे , भर फागुन।’

फगुन जैसे - जैसे बीतने लगता वैसे – वैसे नई तैयारियॉं होने लगती।हम बच्चे घर – घर लकड़ी , गोइठा जमा करने निकलते और हर दरवाजे पर गाते –

'ए जेजमानी तोरा सोने के केबाड़ी दू गो गोइठा द …’

लोग अपनी इच्छा से लकडी॰ - गोइठा देते और जो न देता उसके घर हम दॉव लगा कर उसकी कोई चीज रातोंरात होलिका पर चढ़ा आते।इसके साथ ही होलिका - दहन के दिन की एक और तैयारी चलती – लुकवारी बनाने की । एक पतले लोचदार लोहे के तार के अंतिम सिरे पर खूब कपड़ा लपेट कर गोला - सा बना लिया जाता और उसे दिन - रात किरासन तेल में भींगने के लिए छोड़ दिया जाता।होलिका जलते ही उसमें आग लगा कर उसे भॉजते हुए हम मैदान में निकल जाते।

होलिका के दूसरे दिन धुरखेरी होती। रंग से पहले धूलि – वन्दन का त्योहार।सवेरा होते ही बच्चों और युवाओं की टोली अपने नेतृत्व में यह काम शुरू कर देती।गली में दौड़ा – दौड़ी मच जाती ।किसी पर ताकत से ,तो किसी पर छल से छुप कर कीचड़ डाली जाती। उनकी तो शामत आ जाती जो इससे बचने की चेष्टा करते।दोपहर तक हर कोई काला - कलूटा भूत बन जाता।फिर हमसब मिलकर अगजा जलने के स्थान पर जाते और वहॉ की राख अपने शरीर मे पूरी तरह लपेट कर नदी मे स्नान करते।

अब शुरू होती होली।रंग और गुलाल का त्योहार। घर मे पूरे परिवार के लिए नए कपड़े खरीदे जाते।पुरुषों के लिए कपड़े की एक पूरी थान जिससे बच्चे ,जवान ,बूढ़े सबों के लिए बिलकुल एक ही प्रकार का कुर्ता बनता और सब के लिए एक ही प्रकार के कोर की धोती आती। महिलाओं के लिए एक ही प्रकार के कोर की साड़ी होती तथा ब्लाउज का कपड़ा।ये होली के पहले ही सिल जाते और धुरखेरी के बाद पूरा परिवार जब उसे पहनकर बाहर निकालता तो लगता कि किसी खिलौने की फैक्टरी से ढेर सारे खिलौने एक साथ ही निकाल पड़े हैं।नये कपड़े पहनने के बाद हम घर के बड़े लोगों के पॉंव छूते और वे अबीर लगा कर हमें आशीर्वाद देते।इसके बाद हम घर के बहार निकल कर एक – दूसरे पर रंग डालते। रंग नये कपड़े पर ही खेला जाता था।कभी तो धोने से रंग निकल जाता कभी कोई रंग हमेशा के लिए बना रह जाता।घर में उस दिन टोकरी भर – भर कर माल पुआ बनता।कई गंगाल में शर्बत बनती।कुछ सादी , कुछ भॉंग वाली।जो -जो भी बाबा से मिलने आता, उसे भरपेट शर्बत पिलाई जाती।गॉव की महिलाएँ थाल लेकर आतीं और उन्हें पुआ दिया जाता।उस दिन रात में होली गा कर उसका समापन चैती से किया जाता।

‘आज चइत हम गाएब हो रामा एही रे ठैयॉ।’

रात बीतते – बीतते फगुआ की तरह ही चैती भी गर्माती जाती किन्तु कुल मिला कर इसकी रसिकता में कहीं शालीनता भंग नहीं होती और निरंतर मृदुता बनी रहती –

‘रोज – रोज बोले कोइली भोर – भिनुसरवा , आज काहे बाले आधी रतिया हो रामा , सूतल पियबा।

सूतल पिया के जगाबे हो रामा , भोर – भिनुसरवा।

होबे द बिहान कोइलो खोंतवा उजारबो , जड़ से कटैबो निमी गछिया हो रामा , सुतल पियबा।’

या

‘नकबेसर कागा ले भागा नकबेसर कागा ले भागा। सैयाँ अभागा ना जागा ,नकबेसर कागा ले भागा।’

इस उल्लासपूर्ण पर्व के बीतते ही गॉव की जिन्दगी फिर से अपनी रफ्तार में आजाती।हमारे मुहल्ले में कहार और कुम्हारों के परिवार भी रहते थे।सब जैसे हमारे परिवार के सदस्य हों। कहारिन स्त्रियॉ घर में कुएँ से पानी भर देती तथा मामा के काम में हाथ बॅटातीं।धान की कुटाई ढेंकी से होती और चूड़ा समाठ से कूटा जाता। चूड़ा तो मौसम आने पर रात – रात भर कूटा जाता और घर में उल्लास का वातावरण बना रहता ।गेहूँ जॉंता पर गीत गा गा कर पीसा जाता।दादा जी वैद्य थे अतः घर में तरह – तरह की दवाइयॉं भी बनती रहती।काढ़ा बनने के बाद महीनों या शास्त्रीय निर्देश के अनुसार वर्षों के लिए जमीन के भीतर घड़ों में भर कर गाड़ दिया जाता।च्यवनप्राश ,भष्म और बूटियाँ बनती ही रहती। सारा निर्माण बड़ी मात्रा में होता और पूरे विधि –विधान से।हमारा एक औषधालय जहानाबाद में भी था जिसे मॅझला बाबा चलाते थे।उनकी अनुपस्थिति में बबूजी, जो अभी पढ़ रहे थे।मॅझिला बाबा उच्च कोटि के घुमक्कड़ थे।उन्होने विवाह नहीं किया था। वे समय मिलते ही अपने प्रदेश से बाहर की यात्रा पर निकल पड़ते और कई बार महीनों – महीनों तक नहीं लौटते और लौटते तो सब के लिए कोई न कोई सामान अवश्य लाते । वे पुरानी पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ जमा करने के शौकीन थे। कई बार वे अपने साथ संस्कृत ग्रंथों की दुर्लभ प्रतियाँ लाते। मेरे घर में लकड़ी का एक विशाल बक्सा था जो ऐसी दुर्लभ पुस्तकों और मानचित्रों से भरा था।इनकी तुलना में मेरे बड़का बाबा मुक्त जीवन व्यतीत करते थे।वे बड़े शौकीन थे। उनका पूरा पहनावा सफेद होता ।धुली हुई सफ्फाक धोती और बगलबन्दी , सिर पर बड़ा -सा मुरेठा और सफेद छाता।सलीकेदार जूता।कद मॅझोला ।टहाका गोरा रंग।चमड़ी चमकती हुई।वे पुराणों के गहरे अध्येता थे ।उनका सबसे प्रिय ग्रंथ था महाभारत । उन्हीं की गोद में बैठे – बैठे मैंने सारे वेद – पुराण सुने।मॅझिला बाबा और बड़का बाबा में अथाह प्रेम था , परन्तु दोनों की रुचियॉं एकदम अलग – थीं।मॅझिला बाबा एक सुविख्यात चिकित्सक थे , परन्तु बड़का बाबा की इसमें कोई रुचि नहीं थी।मॅझिला बाबा असाधारण घुमक्कड़ थे , परन्तु बड़का बाबा शायद ही कभी बाहर गये ।हॉ, मेरी बड़की मामा जरूर मँझिला बाबा के साथ कभी वृन्दावन, मथुरा , जगन्नाथधाम या कामरूप कामख्या हो आतीं।जब वे लौट कर आतीं तो बड़की मामा की भाषा एकदम बदल जाती थी। वे मगही की जगह कुछ दिनों तक अजीब -सी ब्रज आदि मिली हिन्दी बोलने लगतीं और हमलोगों को रासलीला की नकल कर सुनातीं।मेरी छोटकी मामा को बाहर की यात्रा से कोफ्त होती थी और वे निरन्तर घर की व्यवस्था में ही व्यस्त रहती थीं।गृह व्यवस्था में भूत – भविष्य को देख कर चलनेवाली उनकी दृष्टि अद्भुत थी और असाधारण था उनका प्रशासन कौशल।उनके इस क्षेत्र में कोई कभी हस्तक्षेप नहीं करता था।परिवार में मैं उनका सबसे प्रियपात्र था।

मेरे घर के ठीक सामने इमामवाड़ा है।मुहर्रम के समय इसकी पूरी देखरेख बाबा कराते थे। आज भी उसकी देखरेख हमारा ही परिवार करता है। उन दिनों मुस्लिम मुहल्ले से हमारे यहॉ खिचड़ा – मलीदा आता था।हमारे घर के शादी – व्याह में मुसलमानों के यहॉ से गेहूँ , घी आदि आया करता था और उनके यहॉ कुछ होता तो मेरे घर से सामान जाता।बाबा ही उनके चिकित्सक थे। बाबा की उनके यहॉ अच्छी प्रतिष्ठा थी।

मुहर्रम में मेरे लिए भी अलग कपडा॰ सिलाया जाता था जिसे पहनकर मैं कर्बला में जाता और छाती पीट -फीट कर लाल कर लेता था। ईद में लोग बाबा से मिलने आते और बाबा उनका मिठाइयों से स्वागत करते थे।

पर्व -त्योहार के उन सुखमय दिनों की याद से अब भी मन - तन में जो ताजगी आजाती है ,उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।

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