याद आताहै गुजरा जमाना 4
मदनमोहन तरुण
छोटका भइया
हमारे फुफेरे भाई उम्र में मुझसे करीब छह – सात साल बड़े थे , परन्तु अपने भाइयों में सबसे छोटे ,इसलिए मैं भी उन्हें छोटका ही भइया कहा करता था।अपनी माता जी की मृत्यु के पश्चात वे अपनी ननिहाल में ही रह गये थे इसलिए गॉंव के अन्य बच्चे भी उन्हें छोटका भइया ही कहा करते थे।उनमें जन्मजात नेतृत्व का कौशल था।वे हमारे लीडर थे और हम उनके फौलोअर।उनके नेतृत्व में हम अपने दैनिक जीवन में कई महान कार्य करते –जैसे किसी बीहड़ वृक्ष पर चढ़ना , उस पर से कूदने का प्रयास करना, नदी में कूद कर तैरने का प्रयास करना आदि। छोटका भइया मेरी छोटकी मामा को छोड़कर औरकिसी से नहीं डरते थे। उनके भय की एक कहानी लोग आज भी सुनाते हैं।भइया के दोनों कान में सोने की कनौसी थी।एक दिन स्कूल में बैठे –बैठे उनके मन में विचार आया कि क्यों न कान की कनौसी निकाल कर नाक में पहनकर देखा जाए। अपनी इच्छा को कार्यान्वित करने के लिए अपने एक मित्र की सहायता से उन्होंने कनौसी निकाल ली ।परन्तु अब समस्या थी उसे नाक में पहनने की। नाक में कोई छेद तो थी नहीं। परन्तु यह कौन सी बड़ी समस्या थी सोच कर उन्होंने कनौसी का नुकीला हिस्सा नाक में खूब जोरों से दबा कर छेद बना लिया और दर्द से रोते - रोते भी उसे अपनी नाक में पहन लिया।नाक के दूसरे भाग में भी उन्होंने उसी बहादुरी से दूसरी कनौसी भी डाल ली।इससे वहॉ पर खून की धारा बहाने लगी। सभी बच्चे डर गये।स्वयं छोटका भइया बी घबरा गये । उन्हें यह डर भी लगा कि घर जाकर कहीं छोटकी नानी की मार न खानी पड़े।उन्होंने अपने एक मित्र से कहा कि वह उनकी नाक से कनौसी निकाल दे ओर कान में फिर से पहना दे, किन्तु मित्र खून की धारा बहती देख कर पहले ही बहुत घबरा गया था। उसने निकालने से मना कर दिया ।अब उन्होंने उसे खुद निकालने का प्रयास किया परन्तु छेद करने से नाक में असह्य पीड़ा हो रही थी और उससे पहनी हुई कानौसी निकालना तो और भी दर्दनाक था। तो फिर ? भइया ने अब किसी और नये झंझट में पड़ने के कनौसी में उँगली डाली और उसे खूब जोरों से खींच लिया जिससे कनौसी तो बाहर निकल आयी परन्तु एक ओर की नाक फट गयी।उनका नाम था नागवन्दन , परन्तु अब जब लोग कभी उनकी अनुपस्थिति में उनकी चर्चा करते तो उन्हें नकफट्टन कहते।जब वे इस हालत में डरते –डरते घर
पहुँचे तो नानी अपने नाती की यह हालत देखकर रोने लगीं और बाबा ने उनका इलाज किया।यह उनके कारनामों का अंत नहीं था ।ऐसी कोई न –कोई लीला तो वे हमेशा ही करते रहते थे।
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