याद आता है गुजरा जमाना 12
मदनमोहन तरुण
तुम तो उनकी प्रतिष्ठा ही खा गये !
हमारी परम्पराओं में कई ऐसे प्रतीक हैं जिन्हें सहजभाव से समझना तो दूर , उनके औचित्य - अनौचित्य का निर्धारण बहुत ही कठिन होता है। इस प्रकार की कई स्मृतियों में से एक यह भी है जिसे याद कर होठ मुस्कान से भींग जाते हैं।
बाबा के गुरुदेव का आगमन हुआ था और यह सदा की तरह हमारे घर के लिए एक विशेष अवसर था। सबसे पहले उनके आते ही नाश्ते के लिए रसगुल्ला मँगवाया गया।गुरुजी ने उसे ग्रहण करते समय मुझे भी पास बुला लिया ।मेरे पास जाते ही बाबा ने मुझे आँखों के इशारे से स्पष्टतः बता दिया कि ज्यादा मत खाना। गुरुदेव ने अपनी कस्तरी में से मुझे एक रसगुल्ला देकर कहा-' खाओ।' मैने उनकी आज्ञा का पालन करते हुए रसगुल्ला मुँह में डाल लिआ और धीरे - धीरे उसका रस चूसते हुए उसका आनन्द उठाने लगा। धीरे -धीरे इसलिए कि बाबा की आँखों का इशारा मुझे याद था। मेरा इरादा यह था कि जबतक वे सारे रसगुल्ले खा न लें, तबतक मैं एक ही मुँह में लिए रहूँ।थोडी॰ देर बाद गुरुदेव ने एक और रसगुल्ला मेरी ओर बढा॰ते हुए कहा - 'लो - लो एक और लो।' पर मैंने मना कर दिआ। इससे बाबा के चेहरे पर चमक आ गयी। थोडी॰ देर बाद गुरुदेव ने भी खाना बन्द कर दिया ,परन्तु एक रसगुल्ला उनकी कस्तरी में अब भी पडा॰ था ।थोडी॰ देर तक मैं देखता रहा कि वे अब खाएँगे।परन्तु उन्होंने तो हाथ धो लिया।मुझे लगा अब इस रसगुल्ले को खाने में कोई खतरा नहीं है और इससे बाबा को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। सब सोचकर मैंने अपना हाथ तेजी से बढा॰या और कस्तरी में बचा रसगुल्ला उठाकर अपने मुँह में रख लिआ।मैं चूसते हुए उसका आनन्द उठाने ही वाला था कि मुझे बाबा का गर्जन सुनाई पडा॰।उन्होंने साश्चर्य कहा -' यह क्या!तुम तो हमारे गुरुदेव की प्रतिष्ठा ही खा गये।' बाबा की बात मेरी समझ में नहीं आई।प्रतिष्ठा ? परन्तु कस्तरी से तो मैंने केवल रसगुल्ला ही लिआ था! अबतक बाबा की गर्जन भरी आवाज सुनकर मेरी दादी बाहर आगयी थीं।कोई और घटना न हो इसलिए वे मुझे पकड॰ कर अपने साथ भीतर लेकर चली गईं। उन्होंने पूछा - ' क्या हुआ ? तुम्हारे बाबा इस तरह गुस्से में क्यों आगये ?' मैने कहा -'मुझे क्या मालूम? मैंने तो गुरुदेव के नाश्ता कर लेने पर कटोरी में बचा रसगुल्ला भर खा लिया था।' दादी ने साश्चर्य कहा - 'तुम बचा हुआ रसगुल्ला खा गये?' मैंने गदर्न हिला कर स्वीकार किया। सुनकर दादी थोडी॰ देर चुप रह गयीं ,फिर बोलीं - 'यह तो बहुत बुरा हुआ। तुम्हारे बाबा इसीलिए क्रोधित हुए। गुरुदेव ने नाश्ते के अंत में जो रसगुल्ला छोडा॰ था ,वह उनकी प्रतिष्ठा थी।' दादी की बात मेरी समझ में नहीं आई। दादा जी ने भी क्रोध करते हुए कुछ ऐसा ही कहा था। अब दादी ने मुझे समझाया - ' जब किसी के यहाँ जाते हैं और उनके द्वारा जो खाने के लिए दिया जाता है उसे सब - का - सब नहीं खा जाते। उसमें से थोडा॰ छोड॰ देते हैं।' मैंने पूछा -' यह क्यों ?' तो दादी जबाब देते हुए कहा - यह छोडा॰ गया भाग उस व्यक्ति की ' प्रतिष्ठा' कही जाती है। अर्थात खानेवाला भुख्खड॰ परिवार का नहीं है। उसके घर में खाने - पीने की कमी नहीं है तभी तो वह अन्न छोड॰ कर खाया। यदि वह चाटपोंछ कर खा जाए तो उसके परिवार की अप्रतिष्ठा होती है। लोग समझते हैं उसके घर में संतुष्टिभर खाने को नहीं है।यदि वह बचा हुआ अन्न कोई और खाले तो खानेवाले के परिवार की भी बेइज्जती होती है।' मेरे लिए दादी बातें चुपचाप सुनने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं रह गया था क्यों कि अबतक तो उनकी या हमारी प्रतिष्ठा पेट में पचने की तैयारी कर रही थी।
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