याद आताहै गुजरा जमाना 6
मदनमोहन तरुण
वह अंग्रेज
प्रभातफेरी में अंग्रेजी राज के विरुद्ध नारे लगाते समय मन में लगता अंग्रेज आखिर होते कैसे होंगे ?
छोटकी मामा प्यार से मुझे कभी – गोरा या अंग्रेजवा कहती थीं और बताती अंग्रेज बहुत गोरे होते हैं एकदम तुम्हारे जैसे।यह सुन कर बड़की मामा प्यार भरा ताना मरती हुई कहतीं ‘छोटकी मत कह मेरे पोते को अंग्रेज। वे गोरे जरूर होते हैं लेकिन कोढ़ी फूटे आदमी की तरह।’ मैंने उस समय तक किसी श्वेत कुष्टरोग से ग्रस्त आदमी को भी नहीं देखा था। इसलिए मैं दुश्मन के खिलाफ नारे तो लगाता था, परन्तु उसे देखने की भी प्रबल इच्छा थी।
माँ अपने मायके सैदाबाद से डोली में बैठ कर जाती थी ।मुझे भी उसके साथ डोली में ही बैठ कर जाना पड़ता था ।डोली को सम्मान जनक सवारी माना जाता था। डोली के चारों ओर रंगीन कपड़े का बना बनाया ओहार लगा दिया जाता था।उससे बाहर की कोई चीज दिखाई नहीं देती थी। वह जमीन से ऊपर टॅगी चार कहारों के कंधों पर लदी हिलती – डोलती चारो ओर से बन्द एक छोटे से कमरे सी होती।उसकी छोटी सी खाट के एक किनारे पर मॉं बैठी रहती बीच में उसकी पेटी होती और एक किनारे पर मैं बैठा रहता।कहार रास्ते भर बोलते जाते। ‘देख के भइया सॅकरा है हू हूँ हूँ … नाला है रे भइया , बस अब क्या अब ले लिया है। हूँ हूँ हूँ… ।अब दुपहरिया है भइया । पेड़ बिरिछ है रे भइया। सने सत्तू… हूँ हूँ हूँ … और किसी बरगद के पेड़ के नीचे खाने के लिए डोली रखी जाती। यही मौका होता। मैं बाहर निकल आता। कहारों में सब हमारे बाबा थे। उनमें सब से निकट थे
जमनका बाबा। वे बाबा के सबसे विश्वसनीय थे । अगर डोली वे ढो रहे हैं तो किसी को साथ जाने की जरूरत नहीं।वे बाल्टी में पानी भर कर ले आते।मॉ के पास पूडी॰ - सब्जी होती थी ।वह मुझे खाने को कहती, परन्तु मुझे तो जमनका बाबा के साथ सत्तू खाने में जो मजा आता वह रोटी में कहॉं!
इसके बाद डोली फिर चल पड़ती।मेरे ननिहाल कलानौर के मुहाने पर पहुँचते ही जमनका बाबा मॉं को सुनाते हुए बोलते। ‘अब आ गेली गॉव में । पिपरा के पेड़ आ गेलो।’ और इस शब्द के साथ ही मॉ जोर से रो पड़ती , उधर नानी के जोर से रोने की आवाज आने लगती।यह मानो गॉव भर के लिए मॉ के पहुँचने का बिगुल होता। मॉ के डोली से उतरते ही नानी उससे लिपट जाती और फिर दोनों ऊँची आवाज में रो पड़तीं । कुछ ही देर के बाद अन्य महिलाएँ भी आजातीं और वे भी थोड़ी देर तक रोतीं रहतीं।फिर पूरा नजारा ही बदल जाता। हॅसी – मजाक पूछताछ। मैं अबतक नाना की गोद में बैठा अपने पसन्द की छेने की मिठाई खाता होता।मामू मॉ को लिवाने जाते थे, परन्तु सैदावाद के विश्वसनीय कहारों के कारण उन्हें डोली के साथ यात्रा नहीं करनी पड़ती थी। वे जहाना बाद में ट्रेन पकड़ कर टेहटा होते हुए कलानौर पहुँचते।
मैंने अंग्रेज देखा
अगली बार जब मामू मॉ को लिवाने सैदाबाद आए तो मैंने डोली में जाने से साफ इनकार कर दिया और मामू के साथ जाने की जिद कर ठान ली।मामू उन दिनों गया कॉलेज के विद्यार्थी थे।वे मुझे साथ ले जाने को तैयार हो गये।रेलगाड़ी पर यात्रा की कल्पना से मैं नाच उठा। मेरे घर से दूर , बहुत दूर नागिन सी बल खाती रेलगाड़ी जब धुऑ उडा,ती पुल से आवाज करती गुजरती तो मैं बाहर निकल कर खूब जोर – जोर से चिल्लाता – ‘छु छु काली … छु छु काली , चल गाड़ी कलकत्तेवाली।’ कभी सोचा भी नहीं था कि कभी उसी गाड़ी पर बैठने का मौका मिलेगा।मामू के साथ जहानाबाद पहुँचा।खूब थक गया था।वे मुझे बिठा कर टिकट लाने चले गये और उधर ही से मेरे लिए छेने की मिठाई भी लेते आए ।उसे देख कर मेरी सारी थकान उतर गयी। रास्ते में वैसे मैं मामू के कंधे पर सवार हो कर स्टेशन तक पहुँचा था परन्तु बीच – बीच में मेरा उत्साह बढ़ाते हुए उन्होंने मुझे चलाया भी था।तभी जोरों से ऑधी सी चलने की आवाज आने लगी। मामू ने कहा रेलगाड़ी आ रही है।मैंने सोचा यह तो कुछ अलग ही आवाज कर रही है ‘छु छु काली’ तो नहीं कह रही है।गाड़ी नजदीक आने लगी तो मुसाफिर बजरंगबली की जय कहते हुए तैयार हो गये और थोड़ी ही देर में जो रेलगाडी॰ विशाल दानवी की तरह दौड़ती चली आ रही थी , वह धीमी होकर रुक गयी। मुझे पकड़ कर मामू तेजी से बढ़े और खिड़की से मुझे अन्दर बैठे एक सज्जन की ओर बढ़ाते हुए कहा -‘बच्चे को ले लीजिए।’ उस आदमी ने मुझे अन्दर ले लिया और अपनी सीट के पास बिठा लिया।उसकी ओर देखा तो पाया- एकदम गोरा। पहली बार देखा था उतना गोरा इंसान। जरूर अँग्रेज होगा! उम्र करीब पचास की रही होगी ।मामू भी अबतक भीतर आगये थे।गाड़ी चल पड़ी। उस अंग्रेज ने मुझे बिस्कुट दिये। इसका स्वाद सैदाबाद के बिस्कुट से अलग ही था ।फिर उसने चाकलेट दिए जिसका स्वाद भी हजारी साव की दुकान के लेमनचूस के स्वाद से अलग था। कैसा - कैसा खाते हैं अंग्रेज। गाड़ी भाग रही थी खेतों - खलिहानों से होती हुई। गजब की दौड़ थी यह। खेत पीछे भाग रहे थे और गाड़ी आगे। लगता था हनुमान जी पशु – पक्षी समेत पर्वत उठाए भागे चले जा रहे हों।
अब ट्रेन टेहटा स्टेशन के पास पहुँच रही थी जहॉं हमें उतरना था।गाड़ी धीमी होने लगी थी। मामू ने मुझे अपनी ओर आने को कहा किन्तु जब मैं उठने लगा तो उस अँगे्रज ने मुझे आने से रोक दिया।मन्द होती हुई गाड़ी रुक गयी।माम ने समझा मैं उतरना नहीं चाहता।उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर जोरों से अपनी और खींचा , परन्तु अँग्रेज ने मुझे उठने नहीं दिया। मामू ने चिढ़ कर कहा- ‘बच्चे को जाने दीजिए नहीं तो गाड़ी खुल जाएगी।’ अँगे्रज ने कहा – ‘ मैं इसे जाने नहीं दूँगा।’ मामू को तो जैसे पसीना आगया।मैं कुछ भी समझ पाने में असमर्थ था।मैं तो उस बिस्कुट के डब्बे को खाली करने में लगा था जो उसने मुझे दिया था।मामू और अँग्रेज में बहस अब अँग्रेजी में होने लगी।ट्रेन खुल गयी , परन्तु उसने मुझे उतरने नहीं दिया।डब्बे में और भी लोग बैठे थे , परन्तु किसी ने भी बीचबचाव नहीं किया।सारा युध्द अकेले मामू ही लड़ रहे थे।घंटे भर बहस चलती रही और गाड़ी गया पहुँच गयी।यही उसका अंतिम पड़ाव था।ट्रेन के ख्कते ही अँग्रेज अपना सामान कुली को देकर मुझे गोद में उठाए नीचे उतर गया और एक दिशा की ओर आगे बढ़ चला।अब मामू तेजी से उसकी ओर बढ़े और उसकी गोद से मुझे खीचने का प्रयास किया।अँग्रेज रुक गया।बहस फिर चल पड़ी।अबतक स्टेशन में हमलोगों के चारो ओर भीड़ इकट्ठी हाने लगी।मामू ने लोगों को वस्तुस्थिति से परिचय कराया।इस कहानी से लोगों में विक्षोभ उमड़ने लगा।अब अँग्रेज से बहस करने में कई और लोग शामिल हो गये।अब ऑंग्रेज ने स्थिति की गंभीरता को समझा।उसकी ऑखें डबडबा गयींऔर उसने मुझे ढेर सा बिस्कुट खरीद कर दिया ।आनी गोद में उठा कर प्यार किया फिर बड़े दर्द से मुझे नीचे उतार कर क्षण भर मुझे देखता रहा और फिर बड़ी तेजी से स्टेशन के बाहर निकल गया । मामू ने मुझे उठा कर अपनी छाती से जोरों से चिपका लिया जैसे उन्हें वह सब मिल गया जो उन्होंने खो दिया था।उस दर्द भरी विजय को हममें से कोई भी आजतक भुला नहीं पाया।
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