याद आता है गुजरा जमाना 14
मदनमोहन तरुण
मेरा स्कूल
सैदावाद में मेरा स्कूल गॉव के उत्तर दिशा की ओर था।मिट्टी का खपरैल मकान। हम घर से बोरा और खल्ली लेकर स्कूल जाते थे।मास्टर साहब के बैठने के लिए एक कुर्सी थी जिसकी एक टॉंग टूटी हुई थी ।टूटी टॉंग के नीचे कुछ ईटें जमा दी गयी थीं।गुरुजी दूसरे गॉंव से घोड़ी पर चढ़ कर आते थे।उनके आते ही उनका एक प्रिय छात्र उनकी घोड़ी को एक पेड़ से बॉध देता और गुरु जी जब खाने लगते तो वह उसे लेकर चराने चला जाता। एसका लाभ यह था कि उसे पढा॰ई से मुक्ति मिल जाती थी।
बरसात के दिनों में गुरुजी महीने में दो – तीन बार ही आते थे।वह उनकी खेती का मूल्यवान महीना होता था।
स्कूल प्रातः काल सात बजे के आसपास अरम्भ होता था। पहुँचते ही सबसे पहले प्रार्थना होती –
‘ हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी , धर्म रक्षक वीर , व्रतधारी बनें।
उसके बाद गिनती शुरू होती।सबसे अगली पंक्ति में वह विद्यार्थी खड़ा होता जो उस दिन सबसे पहले पहुँचता था। उसे ‘मीर’ कहते थे।उस दिन के प्रार्थनादि का संचालक वही होता था।प्रार्थना के बाद गिनती शुरू होती ।मीर कहता ‘एक’ फिर उसके बाद एक के बाद एक विद्यार्थी दो… तीन चार … कहते चले जाते।अनुपस्थित विद्यार्थी को घर से पकड़ कर लाया जाता , फिर खजूर की छड़ी से उसकी पिटाई होती।इस बीच प्रार्थना के बाद पहाड़ा शुरू होता –
एक्का एक ।दू ए दू। तीने तीन … सतर का सतरह । सतरह दूनी चौंतिस …
और फिर ‘ककहरा’ –
क का से कि की कु कू बेदाम
के कै पिंजड़ा को कौ दाम
बेंग बोले कं कः।
च चा से चि ची चु चू बेदाम
चे चै पिंजड़ा चो चौ दाम
बेंग बोले चं चः…
इस प्रकार पूरा ककहरा खेल – खेल में याद हो जाता।
स्कूल से गुरुजी के अर्जन का एकमात्र माध्यम था वर्ष में एक बार विद्यार्थियों से प्राप्त गुरुदक्षिणा ।इसे समारोह की तरह भादो के महीने में गणेश चतुर्थी से आरम्भ कर अगले दस दिनों तक मनाया जाता था। इसमें विद्यार्थी और उनके परिवार के लोग समान उत्साह से भाग लेते थे। जिस प्रकार की बहुरंगी डांडिया का प्रयोग गुजरात में डांडिया रास के अवसर पर किया जाता है, ठीक उसी प्रकार की रंगीन डांडी उस अवसर पर हर छात्र खरीदता था। गुरुजी भी उस अवसर पर साफ – सुथरी कमीज – धोती पहन कर आते थे।सभी विद्यार्थी स्कूल से एक – एक विद्यार्थी के घर जाते ।जिस विद्यार्थी के घर हम पहुँचते वहॉं गुरु जी को सम्मान पूर्वक बिठाया जाता एवं उस परिवार के विद्यार्थी की ऑंखें पट्टी से बॉध दी जाती और उसके माता – पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के सामने उसे खड़ा कर दिया जाता तथा अन्य विद्यार्थी उसके पीछे खड़े होकर डंडिया बजा – बजा कर ‘चकचंदा’ गाते।वैसे इस समारोह का नाम भी चकचंदा ही था। इसका प्रारंभ गणेश जी की प्रार्थना से होती -
भादो चौथ गणेश जी आए ।
सब चटियन मिल चलो नहाए।
जमुना जल के निर्मल नीर।
वहॉ नहाए सब कोई मिल।
भादो महीने की चतुर्थी के दिन गणेश जी का आगमन हुआ है।हम सब विद्यार्थी स्नान करने चलें।यमुना जी का पानी स्वच्छ है। सब लिजुल कर नहाएँ।
इसके बाद ताल बदल जाता –
चकचक चॉदनी।
पानी भरे ब्राह्मणी।
लाल दुपट्टा ओढ़ के।
छाती कम्मर मोड़ के।
एकदम सफेद बर्तन से ब्राह्मणी पानी भर रही है।वह अपनी छाती और कमर समेटे हुए तथा लाल दुपट्टा ओढ़ कर पानी भर रही है।
लगता है ये पंक्तियॉं पूजा के लिए गुरुपत्नी द्वारा की जाने वाली तैयारी से सम्बध्द है।गुरुपत्नी लाल साड़ी पहनकर पूजा के लिए पानी भरती होगी। इसमें तनिक रसिकता भी है जिसमें गुरुपत्नी के लोचदार शरीरयष्टि की ओर भी इंगित किया गया है।
‘खड़े – खड़े गोड़बा पिरा हौ गे मइया।
अँयाखिया मोर दुखैलो गे मइया ।
तनिको दरदिया न लागौ गे मइया।
तनिको अब देरिया न करिहेंगे मइया।
गुरु जी के दछिनमा देहू गे मइया।’
ऐ मॉं ! मेरी ऑखें दुखने लगीं। खड़े – खड़े मेरे पॉव दुखने लगे।ऐ मॉ क्या तुम्हें दया नहीं आती ? अब जरा भी देरी मत करो मॉं । अब गुरु जी को दक्षिणा दे दो मॉ।
आगे की पंक्तियों में विद्यार्थी के माता - पिता को समझाया जा रहा है कि गुरुदक्षिणा देने में कोई कंजूसी न की जाए क्योंकि धन तो नाशवान है –
घर में राखो चोर ले जाए।
बाहर राखो चील्ह ले जाए।
गुरु जी को देदो नाम हो जाए।
धन किसी का अपना नहीं होता।उसका क्या ठिकाना? अगर घर में रखो तो चोर ले जा सकता है और अगर बाहर रखो तो चील ले जा सकती है। इससे तो अच्छा है कि गुरु जी को दे दिया जाए।उससे समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
मगही का यह चकचंदा उस भाषा की लयात्मकता से युक्त है।यहॉ हर शब्द को लयात्मकता प्रदान की जाती है जैसे –
मॉ - मइया
ऑख - अँखिया
गोड़ - पॉव- गोड़वा
दरद - दरदिया
दक्षिणा -दछिनमा
देरी -देरिया
अपनी संतान को संकट में पड़ा देख माता - पिता गुरु जी को अपनी क्षमता के अनुसार अनाज , धोती , मिठाई आदि देते थे।दक्षिणा पाकर गुरु जी उस विद्यार्थी की ऑखों की पट्टी खोल देते और उसे रोली – अक्षत का टीका लगा देते तथा हम विद्यार्थी एक बोरे में वह सामान डाल कर अन्य विद्यार्थी के घर की ओर चल पड़ते।यह स्कूल का सबसे मोहक समारोह था।
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बहुत बहुत धन्यवाद, पहली बार इस त्यौहार के बारे में जाना और अपनी संस्कृति पर गौरवान्गित महसूस कर रही हूँ|
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