याद आताहै गुजरा जमाना 2
मदनमोहन तरुण
रामरतन जी
कलानौर के इतिहास से मैं पूरी तरह परिचित नहीं , परन्तु उन दिनों इस अनजाने से छोटे गॉव में जगह – जगह पर पुरानी कलात्मक मूर्तियॉं थीं।मेरी नानी की रसोई घर के दरवाजे पर एक विशाल श्वेत प्रस्तर खंड था जिस पर फूलों की सुन्दर खुदाई थी ।वहॉं के सूर्य- मंदिर की मूर्ति- भी साधारण नहीं थी।’बजार पर' के नाम से ज्ञात मुहल्ले के ठीक बीच में काले पत्थर की शिव की एक विशाल मूर्ति- थी जिनकी गोद में नमित मुख पार्वती बैठी थीं और उनके एक स्तन पर शिव जी की हथेली कोमलता से अवस्थित थी।पार्वती की कमर , उनके स्तनों की गोलाई और व्रीड़ायुक्त पलकों के नीचे तनिक खुले होठों में नियंत्रित किन्तु सुव्यक्त कामुकता थी।इसी मूर्ति के सामने रामरतन जी का मकान था जिन्होंने एक उच्चस्तरीय महाकाव्य लिखा था।नाम याद नहीं।तबतक उनमें कुछ मानसिक विक्षेप के लक्षण दीखने लगे थे। वे अकारण मुस्कुराते रहते।वह महाकाव्य उनके इन्हीं दिनों में सूर्य- मन्दिर के पास नदी किनारे रात - दिन बैठ कर लिखा गया था।उसके कुछ पृष्ठ बहुत ही रद्दी कागज पर गया के किसी प्रेस में छपे थे ।उसकी एक प्रति उन्होंने मेरे पास भी भेजी थी,किन्तु मैं उसे कहीं ढूँढ़ नहीं पा रहा हूँ।वैसे उस महाकाव्य का एक बड़ा भाग मैने कई बैठकों में उनके मुँह से सुना था।जहॉं तक मुझे याद है वह भाषाधिकार , अभिव्यक्ति कौशल एवं मनोज्ञ बिम्ब रचना संयुत छायावादी वृत्ति का प्रशंसनीय महाकाव्य था।रामरतन जी अपने इस महाकाव्य के साथ निराला जी से भी मिले थे। गया से मुद्रित इस महाकाव्यांश में निराला जी की टिप्पणी भी प्रकाशित हुई थी जो मुझे याद नहीं।इस महाकाव्य के अनाम रह जाने की पीड़ा मेरे मन में कहीं अब भी है।हम न जाने ऐसी कितनी ही कृतियों से वंचित रह जाते हैं जो साधन के अभाव में कभी समुचित प्रकाशन का मुँह नहीं देख पातीं।
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