याद आता है गुजरा जमाना -1
मदनमोहन तरुण
डोली लेकर चले कहार
इस बार मैंने मॉं के साथ डोली पर बैठ कर ननिहाल जाने से मना कर दिया।होश सम्हालने बाद पिछली दो बार से मॉ के साथ जाने का मेरा अनुभव बहुत बुरा था।एक तो डोली की छोटी – खाट ,एक किनारे पर बैठी मॉं अपना प्रिय ग्रंथ महाभारत पढती, रहती , बीच में उसका बड़ा सा बक्सा और एक किनारे पर मैं कोई काम न होने के कारण चुलबुल – चुलबुल करता रहता। डोली चारो ओर से ओर से मोटे कपड़े के ओहार से ढॅकी रहती, जिससे न बाहर की दुनिया दिखाई देती न पूरी तरह हवा आती।चार कहारों के कंधों पर तीन घंटों से भी ज्यादा समय तक हिलता डोलता यह अंधा संसार किसी भी दृष्टि से सराहनीय नहीं था।झॉकने का प्रयास करते ही मॉ की वर्ज-ना भरी दृष्टि का सामना होता और जरा भी पर्दा- खुल जाए तो कहारों में जमनका बाबा चिल्ला पड़ते – ‘हॉ … हॉं … और मेरी सिट्टीपिट्टी बन्द हो जाती और फिर बाहर के संसार से हम कट कर दूसरों के कंधे पर लदी दुनिया में आ स्मिटते। भीतर हमें केवल बाहर के इंसानों की बोली , पक्षियों की कचबच , कभी कौओं की कॉव – कॉंव , कभी कोयल की कूक , कभी सरसराती हवा, कभी खेतों से हुड़क – हुड़क पानी बहने की आवाज के साथ कहारों की अनवरत हूँ… हूँ… हूँ… अब पहुँचे हैं , भइया रे, सम्हाल के आरी है , खूँटी है , हरिअरी है , अब क्या भइया पहुँच रहे हैं हूँ… हूँ… हूँ… सुनाई देती रहती।जैसे ही डोली कलानौर गॉव के बाहर देवी मंदिर के पास पहुँचती कहार बोल उठते ‘ हॉ बहुरिया! पहुँच गये कलानौर , देवी का मंदिर … सुनते ही मॉं सम्हल कर बैठ जाती।डोली जब कोनाठी पर नानी के घर के पास पहुॅच जाती तो कहार जोर से बोालते - हूँ… हूँ… हूँ… अब पहुँच गये … सुनते ही मॉ महाभारत की पोथी बक्से में डालती और इस दुःखद और दमघोंटू यात्रा की समप्ति पर मैं राहत की सॉस लेता और डोली के जमीन पर रखते - रखते मैं कूद कर नीचे उतर जाता। तबतक वहॉ गॉव की महिलाओं का जमघट लगा रहता। मॉं के डोली से उतरते ही नानी उसे गले से चिपका कर,राग उठा-उठा कर रोती, फिर परिवार की अन्य औरतें उससे लिपट – लिपट कर रोतीं । मैं मुँह बाए खड़ा रहता , उन लोगों को देखता हुआ।तनिक देर बाद अपनी ऑंखें गीली किए नानी मुझे गोद में उठा कर अपने से चिपका लेती।सच तो यह है कि इनदिनों सैदाबाद में भइया के द्वारा रची अजादी की दैनिक पभातफेरी इतनी रोचक हो चली थी कि उसे छोड़ कर मैं कहीं जाना ही नहीं चाहता था।सो इस बार किसी की एक न चली और मैं सैदाबाद में ही रुक गया।
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