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Sunday, February 13, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 7

याद आताहै गुजरा जमाना 7

मदनमोहन तरुण

हिन्दू – मुसलमान

सैदावाद आसपास के गॉवों से बडा, गॉव था।इसकी आवादी में अस्सी प्रतिशत हिन्दू और बीस प्रतिशत मुसलमान थे।मुसलमान गॉव के पश्चिम – दक्षिण दिशा में रहते थे।वे हिन्दुओं की तुलना में धनाढ्य थे।उनके मकान पक्के थे।कुछ मकानों के आगे अच्छी बागवानी रहती थी।संध्या समय कुछ परिवार अपने बाहर के चबूतरों पर नक्काशीदार उम्दा कुर्सियों पर बैठ कर बातें करते रहते।हमारे मुहल्ले के कहार उनके यहॉ नौकरी करते थे।उनके घरों से वे कभी चोरी कर बॉस और मौसम आने पर आम आदि चुरा कर ले आते । उन्हें बेच – बेच कर उन्होंने अपनी स्थिति बेहतर कर ली थी ।सैदावाद का पोस्टऑफिस भी मुसलमानों के मुहल्ले में ही था जहॉ केवल मुसलमान कर्मचारी थे।उसकी दीवार पर देवनागरी अक्षरों में गाढ़ी स्याही से टेढ़ेमेढ़े अक्षरों में ‘तक्सीमे डाक की खिड़की ‘ जैसे निर्देश लिखे रहते।वहीं मस्जिद थी जो आज भी है। मंगलवार अ‍ौर शनिवार की संध्या का बाजार भी उन्हीं के मुहल्ले में लगता था।जहॉ दमुहॉ गॉव का हलवाई मिठाई लेकर आता था। उसके पास मुख्य रूप से जलेबी , गुड़ के लकठो और छेने की मिठाइयॉ रहती थी।गॉव के कुछ लोग मौसमी चीजें लेकर बैठ जाते थे।मुसलमानों के बच्चों के अलग स्कूल थे।हिन्दुओं से उनका मिलना – जुलना बहुत कम था। बाबा से उनमें से कुछ की अच्छी दोस्ती थी। हम अगर भूल से उनमें से किसी को ‘बाबा’ की जगह ‘चच्चा’ कह देते तो डॉट पड़ जाती और वे तुरत सुधार कर कहते ‘ई का सीख रहे हो? किसने सिखाया यह सब ? हम तुम्हारे बाबा हुए ।नईममा तुम्हारा चच्चा हुआ।’ मुस्लिम स्त्रियॉं मेरी दादी को ‘चाची ‘ ‘भउजी’ आदि सम्बोधनों से बुलाती थी।यह सब बहुत स्वाभाविक था।लगता था ये रिश्ते बहुत पुराने थे। मेरी दादी को कई परिवरों का जैसे इतिहास पता था। वे वे रसूल , अरबाब , सकीना , आदि के बारे में बड़ी सरलता से बातें करतीं यहॉं तक कि उनके श्वसुराल और उनके बाल – बच्चों के बारे में भी जानकारी थी।ठीक उसी प्रकार कई मुस्लिम महिलाएँ ‘बबुआजी’ मेरे पिताजी ‘ मँइयॉ’ मेरे पिताजी की छोटी बहनहृ आदि मेरे परिवार के सदस्यों के बारे में बहुत सहजता से बातें किया करतीं।मुहर्रम में ताजिया निकलता तब मैं भी नये कपड़ा पहन कर , कमर में घंटी बॉंधे और खजूर की छड़ी लिए उसमें भाग लेता था और उन्हीं के साथ छाती पीट – पीट कर लाल कर लेता और घर लौट कर बड़ी बहादुरी से अपनी कमीज खोल कर दादी को दिखाता।दादी रो पड़तीं और तुरत वहॉं पर तेल लगातीं।मुहर्रम के दिनों में मुसलमानों के परिवार के लोग कलकत्ता से आते थे। उनका पहनावा काफी अच्छा हुआ करता था। उनमें से कई बहुत अच्छी लाठी खेलनेवाले थे। उनमें से एक पॉच – पॉच , छह – छह से भिड़ जाते। यह खेल बहुत ही रोमांचक हुआ करता था।

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