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Wednesday, March 30, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 24

याद आता है गुजरा जमाना -24


अब्दुल अजीज दफ्तरी


मदनमोहन तरुण

अब्दुल अजीज जहानाबाद के बुक-बाइंडर थे। उनकी दुकान बाजार में थी और उनका घर मेरे मुहल्ले में।उनका चेहरा पतला -सा था ,मूँछ हल्की और दाढी॰ नुकीली - सी।उनके सिर पर एक गोल टोपी होती थी। वे सदा लुंगी पहने रहते थे। कुल मिलाकर उनके चेहरे से शांति झलकती थी। वे मेरे बाबा को चचाजी कहकर बुलात थे।

मेरे बाबा प्राचीन पुस्तकों के समर्पित संग्रहकर्ता थे।उनके पास ढेर सारी मूल्यवान पांडुलिपियाँ थीं ,जिन्हें वे बहुत सँजोकर रखा करते थे और उनके इस कार्य में अब्दुल अजीज उनकी बहुत सहायता करते थे।ताड॰ और भोजपत्र पर लिखी पुस्तकों के लिए वे जिल्द तैयार करते और जीर्ण - शीर्ण पुस्तकों की पूरी निष्ठा के साथ मरम्मत करते।

एक बार मेरे बाबा ने 'रामायण' की एक दुर्लभ और प्राचीन तथा जर्जर प्रति देकर उनके पास भेजा। जब मैं उनकी दुकान पर पहुँचा तो वे अखवार पढ॰ रहे थे। पुस्क देखकर उन्होंने पूछा - 'कौन - सी पुस्तक है ?' मैने कहा -''रामायण है।' सुनने के बाद उन्होने कहा कि एक सप्ताह बाद आना और फिर अखवार पढ॰ने में लीन हो गये। मुझे उनका यह व्यवहार जरा भी अच्छा नहीं लगा। सचपूछिए तो बहुत क्रोध आया , परन्तु मैंने उन्हें कुछ कहा नहीं , वहाँ से सीधे लौटकर घर वापस आगया।उनके प्रति मेरा गुस्सा अबतक शांत नहीं हुआ था।मैंने बाबा से कहा कि वे अब अपनी किताबें , उनके पास न भेजें । जहानाबाद में उनके अलावा और भी जिल्दसाज हैं।' सुनकर बाबा ने पूछा ' क्या हुआ?' मेने कहा उन्होंने काम करने से इनकार कर दिआ और इसका कारण भी नहीं बतलाया।' बाबा थोडी॰देर चुप रहे फिर उन्होंने पूछा- 'आखिर उसने कहा क्या?' मैने कहा - उसने कहा कि एक सप्ताह के बाद लाना ।परन्तु इसका कोई करण नही बताया।सुनकर बाबा बोले - ठीक है, पुस्तक रख दो, वह काम करेगा। बाबा की यह बात मुझे पसन्द नहीं आई। जिस आदमी ने इतनी उपेक्षा प्रकट की , उसके प्रति इतनी सहानुभूति क्यों। वह मुफ्त में काम तो कर नहीं रहा था। यही पैसे देकर ,यह काम अभी दूसरे से भी कराया जासकता है। परन्तु बाबा के ादेश का तो हमें पालन करना ही था। मैं अपना गुस्सा पीकर और मन मसोस कर रह गया।

करीब एक सप्ताह बाद , किसी दिन सवेरे - सवेरे आब्दुल अजीज मारे यहाँ आए। वे साफ धुली हुई गंजी ौर लुंगी पहने थे। टोपी भी लगता था साफ की गयी थी ौर उन्होंने शायद सवेरे - सवेरे स्नान किया था। उन्होंने बाबा से किताब माँगी। बाबा ने मुझसे किताब मँगवाई और उन्हें देदिया। वे लेकर चले गये। पिछले प्करण के बारे में बाबा ने उनसे कुछ भी नहीं पूछा। मेरे मन में पिछला क्रोध अभी भी बरकरार था।मैंने कहा -'लगता है आज इनके पास कोई काम नहीं है इसलिए सवेरे - सवेरे आ गये।' बाबा सिर्फ मुस्कुरा कर रह ये , उन्होंने कुछ कहा नहीं।

ग्धकुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे पुस्तक लाने के लिए उनके यहाँ भेजा। जब मैं उनकी दुकान मेम गया, तो मुझे देखते ही वे भीतर के कमरे में चले गये और वहाँ से किताब लेकर आए और मुझे देदिया। उस पुस्तक को इस नये कलेवर में पहचानना अत्यन्त कठिन था। लगता था जिसे कल भिखारी के रूप में सड॰क पर भीख माँगते देखा था , वह आज राजा के आसन पर बैठा दिखाई पड* गया। मैं चौंक गया ! क्या यह वही किताब है? उसका बाहरी प्रच्छद कडे॰ कूटपर लाल सटी रेक्जिन से चमचमा रहा था। उसके जीर्ण - शीर्ण अन्तः के पृष्ठों की मरम्मत पारदर्शी सफेद कागज से की गयी थी।वे पृष्ठ पहले के दुरुस्त पन्नों से भी अधिक मजबूत और लुभावने लग रहे थे।मै अब्दुल अजीज की यह कला देखकर मुग्ध रह गया। मैंने उनकी प्रशंसा की। मेरे शब्दों का उन्हों ने विनम्रता से स्वागत करते हुए कहा - 'चाचाजी का काम है न !इसमें कोई कोताही कैसे हो सकती है? 'यह सुनते ही मैंने उनसे पूछा - अच्छा , यह बतलाइए कि पिछली बार ापने काम करने से मना क्यों कर दिया था ?' मेरी बात सुनकर वे थोडी॰ देर चुप रहे। फिर बोले ' बात यह है , बबुआजी, कि उनदिनों मेरा दामाद आया हुआ था। घर में उसके स्वागत में तरह - तरह के पकवान बन रहे थे, जिसमें ऐसे जानर का भी मांस बना था जिसे हिन्दू लोग बुरा मानते हैं। वह मांस मैने भी खाया था। भला उसे खाकर मैं 'रमायन' जी को केसे छू सकता था। जब मेरा दामाद चला गया , तब मैंने अपने सारे कपडे॰ धोए और नहा कर और पवित्र होकर आपके यहाँ से इन्हें लाने गया। दूसरी कितावों की जिल्दसाजी करते समय मैं उनपर एक लकडी॰ रखता हूँ और उसे पाँव से दबा कर काम करता हूँ , परन्तु 'रमायन' जी पर तो पाँव नहीं रख सकता न ! इसपर मैंने घुटना रखकर काम किआ है ,जिससे मेरा घुटना छिल - छिल गया है। मगर उससे क्या, हर चीज एक तो नहीं।' कहकर वे चुप हो गये।

वे जैसे - जैसे बोलते जा रहे थे, वैसे - वैसे मुझे उनमें एक नये अब्दुल अजीज नजर आ रहे थे। ऐसे व्यक्ति पर शंका करते हुए मैं स्वयं को लज्जित अनुभव कर रहा था। चलते समय मैंने उन्हें विन्रता से प्रणाम किया और पुस्तक लेकर आभार सहित चला आया।'

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