याद आता है गुजरा जमाना- 21
-मदनमोहन तरुण
महत्वाकांक्षाओं की सुगबुगाहट
सैदाबाद कभी – कभी मुझे मॉ की डोली जैसा लगता है, चारों ओर से बन्द , नियति के कन्धों पर लदा हुआ।वह बाहर की जिन्दगी की तेज रफ्तार के बारे में कुछ भी नहीं जानता।रास्ते ,मोड़ , लोग , जिन्दगी के बदलते चेहरे सबसे बेखबर।डोली को कहार रख दें तो वह रुक कर प्रतीक्षा करने लगता है और उठा कर कहार चल दें तो वह उनपर टॅगा बेखबर चलता चला जाता है।दो सौ घरों की इस बस्ती के अधिकतर लोगों की जिन्दगी ऐसी ही है।ऐसे में कहीं – कहीं जब छोटी – छोटी महत्वाकांक्षाओं की सुगबुगाहट होती है तो अच्छा लगता है।महत्वाकांक्षाएँ किसी हिमशिखर पर आरूढ़ होने की नहीं, किसी गिनी बुक में नाम दर्ज कराने की नहीं , जिन्दगी की मरणासन्न डालियों में जरा-सा पानी डाल कर उसमें कोई एक कोंपल या हो सके तो एकाध फूल खिलाने की महत्वाकांक्षा।बाहर की चकाचौंध भरी दुनिया में हो सकता है इसकी चर्चा भी बेमानी हो, ऊँचाई पर टॅगे किसी विशाल पोस्टर के नीचे जमीन पर झपकी लेते एक उघाड़ बदन मजदूर की सत्ता की तरह,परन्तु यह भी हमारी जिन्दगी की कठोर और मुँह बिराती एक सच्चाई तो है ही।
चमारों के मुहल्ले में दिलकेसर जी का बेटा कलकत्ता से अंग्रेजी बाजा खरीद कर ले आया है।संध्या समय मुहल्ले के कई युवक अभ्यास करते हैं … वो तो बॉंस बरेली से आया ,सावन में ब्याहन आया… ।कुछ दिनों के बाद यह आवाज बन्द हो गयी।कुछ लोगों ने बताया कि दिलकेसर का बेटा बड़ा आदमी बन गया है। पटना की सड़क पर उन्होंने उसे अपने बहुत से संगियों के साथ राजाओं जैसा ड्रेस पहन कर बाजा बजाते हुए देखा है।उसके आगे – पीछे कार और फिटिन चल रही थी।गॉव के लिए गर्व की बात है।
रामोतार भाई के पिताजी घर – घर जाकर लोगों के दाढ़ी – बाल बनाते और फसल कटाई के समय अनाज के खलिहान में पहुँच कर वहॉ से जेजमनिका वसूल कर परिवार चलाते थे साथ ही वे लोगों के रिश्तेदारों तक जनम – मरण की चिट्ठियॉं पहुँचा कर अपना घर चलाते थे।उनकी मॉ गृहिणियों के नाखून काट कर और रॅग कर अपने घर की श्रीवृध्दि में योगदान करती थी।कुछ दिनों बाद सुना कि रामोतार भाई को जबलपुर के किसी सैलून में नौकरी मिल गयी।उनके पिताजी का कहना है कि रामेतार बड़ा आदमी बन गया। वह उनकी तरह लोगों को ईंट पर बिठा कर दाढ़ी नहीं बनाता।उसके सैलून में बड़ी – बड़ी कुर्सियॉ लगी रहती हैं ।सामने बडे॰ - बडे॰आईने टँगे होते हैं।चमकते उस्तुरे से वह ऐसी दाढी बनाता है कि लोगों को नींद आजाए। ।हजामत के बाद सिर की ऐसी मालिश करताहै कि आदमी नये - नये सपने देखने लगे।।सुन कर कुछ लोगों की ऑखें ईष्र्या से दग्ध हो उठती हैं कुछ की आश्चर्य से चमक उठती हैं।कुछ दिनों के बाद रामोतार भाई अपने पिता और मॉं दोनों को जबलपुर ले गये।
गॉंव की चूडी॰हारिन अब भी याद है। उसे सब जोगिन कहते थे।उसको चेहरा उसकी चूड़ियों जैसा ही चमकता था।उसके आते ही घर के पुरुष भीतर जाने का बहाना ढूँढ़ते रहते ।वह इसे समझती थी और स्त्रियों से हॅस – हॅस कर बातें करती हुई उनकी नर्म या कोमल कलाइयों में चूड़ियॉं सरका देती और पुरुषों की ओर अपनी रसीलीऑखें।’सब के देती थी दॉंव बन्धु'। बाद में उसने जहानाबाद में अपनी दुकान खोल ली।
आजादी के बाद पाकिस्तान में अपनी घर- गृहस्थी खो कर आने वाले सिख अपने सिर पर बड़ा – सा बक्सा उठाए गॉव में आते जिसमें सुई - सलाई से लेकर पहनने के कपड़े और बर्तन भी होते।उससे एक ओर जहॉं उनकी कमाई होती ,वहीं गॉव के घरों में नये सामानों की चमक आती और कई युवक फेरी के धंधे की ओर प्रेरित होते।उन दिनों गॉव की फेरी कर बिक्री करनेवाले कई सिख अ।ज जहानाबाद और आसपास अच्छे व्यापारी हैं।
मेरे मुहल्ले का पासी सुरबा ताड़ी की दुकान है। वह कहीं से एक लौंडा ले आया है जिसे वह सरंगी बजा कर नाचना और गाना सिखा रहा है।लौंडा ऊँची तान उठाता है –' पटना से लहॅगा मगा द हो पियबा , अइसे न सूतब … उसकी तान पर ताड़ी पीने वाले लहालोट हो जाते हैं। एक लबनी पीनेवाला दो लबनी पी लेता है ।सुनते हैं सुरबा लौंडे को लेकर पटना में नाच पार्टी शुरू करने की तैयारी में है।
कहारों के मुहल्ले के जितेन्दर ने एक टॉगा खरीद लिया है।गॉव के बनियों के लिए वह जहानाबाद से सामान लाता है और वहीं बाजार से स्टेशन तक सवारी भी ढो लेता है।कई बार आसपास के गॉवों के लिए भी काम करता है।वैसे तो जहानाबाद से शहर तक सड़क के नाम पर एक टूटीफूटी आल है उस पर भी अलगना से आगे लोग सड़क पर ही गाय – भैंस बॉधते हैं। उनके मुँह कौन लगे।सो, हटते – बचते इस सड़क पर दोनों का काम चलता है , भैंसों का भी और जितेन्दर भाई की टॉगेवाली दुलकी घोड़ी का भी।
वर्षों बाद
सैदाबाद से मेरा संग – सोहवत वर्षों से छूट गया।आठ साल तो मैं पढ़ाई के लिए बाहर – बाहर रहा और फिर अड़तीस- उन्चालीस साल नौकरी करता रहा।इस बीच एकाध बार जाना हुआ , एकाध दिन के लिए । उसमें किसी से मुलाकात हुई , किसी से नहीं हुई।यहॉं बस हमारी खेती होती है। पूरा परिवार जहानाबाद में रहता है।मगर पर्व - त्योहारों के अवसर पर परिवार का सैदाबाद आना - जाना लगा रहता है।इस बार करीब पैंतालिस साल के बाद सैदाबाद आया हूँ। आजकल तो तीन – चार साल में किसी शहर का चेहरा इतना बदल जाता है कि उसे पहचानना तक मुश्किल हो जाता है , किन्तु सैदाबाद बदल रहा है,परन्तु , अपनी पुरानी पहचान के साथ । हाँ, इतने वर्षों में जहानबाद से सैदाबाद तक पक्की सड़क बन गयी है।बिजली के तार भी तन गये हैं ।यदि करेंट हो तो कुछ घरों में बल्ब भी जलते हैं ।एक या दो घर में टेलीफोन भी है।जिस स्कूल में मैं पढ़ता था उसका कमरा उतना ही बड़ा है किन्तु अब पक्का हो गया है।यहॉं छठी कक्षा तक पढ़ाई होती है। कई क्लास खुले में लगते हैं। चार शिक्षक हैं।लड़कियॉं भी पढ़ती हैं। बच्चों की ऑखों में चमक है , पहले से कहीं ज्यादा।सिंचाई के पुराने कुएँ कुछ ही शेष हैं जिनकी सतह पर बैठ कर शाम गहराने हम तक गप्पें हॉकते थे।अब लाठा – कूँड़ी से नहीं , दमकल से खेती होती है।प्लास्टिक की पाइपें दूर – दूर तक पानी ढोती हैं।खेतों में पहले से अधिक हरियाली है।सड़क के किनारे दो – चार चाय , बिस्कुट, लिट्टी आदि की दुकानें हैं , गली में दो चार बनियों की भी दुकाने खुल गयी हैं।एकाध दवाखाना भी है।परन्तु सत्तर प्रतिशत मकान पहले जैसे ही हैं।मिट्टी के ।आधे खड़े , आधे लड़खड़ाए।गलियॉं वैसी ही खुली, नलियों से भरी।गॉव में दो – चार लोग आसपास के गॉवों या शहरों के स्कूलों में शिक्षक हैं।औरतों में शिक्षा नदारद।ऐसे सौभग्यशाली बच्चे कम ही हैं, जिन्होंने खिलौनों से खेला हो या दो – चार बार मिठाई खाई हो।
बचपन के मित्र बूढ़े – बुजर्ग हो चुके हैं। ज्यादातर की उम्र साठ के आसपास या उससे ऊपर है।किसी की कमर झुक गयी है , किसी के गाल पिचक कर गड्ढे में तब्दील हो गये हैं,किसी को दमा , तो किसी को गठिया ने जकड़ लिया है।कोई न तो देख सकता है , तो कोई सुनने में लाचार है।किसी के शरीर पर पूरा कपड़ा नहीं।जूता शायद ही किसी के पॉव में हो।
मुझे सामने देख कर और पहचानते हुए भी वे मुझसे मिलने में झिझक रहे हैं।वे मुझे अपना मित्र कैसे कहें , ऐसे तो उन्होंने साहब देखे हैं ,जिनके सामने उनकी घिघ्घी बॅध जाती है। जेढन भाई सामने खड़े हैं।लगता है मैं उनका अपराधी हूँ।वे समझ नहीं पा रहे हैं कि बात – व्यवहार कहॉं से शुरू हो ।अंततः मैं ही जेठन भाई को खींचता हुआ कहता हूँ चलिए खेत की ओर घूमने चलते हैं। सुनते ही सबों के चेहरे चमक उठते हैं।उनके चुप्पी साधे बेटे – पोते खिलखिलाने लगते हैं।मैं अपनी जेब से उन्हें चाकलेट निकाल कर देता हूँ।पहले संकोच से, फिर वे आगे बढ़ कर लेते हैं। उनकी बन्दर कूद शुरू हो जाती है।अब हम खेतों से गुजर रहे हैं । गेहूँ के पौधे जवान हो रहे हैं।धनिया के पौधों से मिठास भरी गंध उठ रही है।मित्रों के पाँवों में तेजी है। उनके चेहरे हरिया गये हैं।जुगल जी बहुत अच्छा गाते हैं। उनका प्रस्ताव है आज शाम को गायन – बजावन हो जाए। ढोलक – झाल सब है। सुदामा कहते हैं अब देर रात तक गान – बजान सुरक्षित नहीं , गॉव में अबतक कोई कांड तो नहीं हुआ ,परन्तु नक्सलपंथी यहॉं पनाह लेने लगे हैं।अँधेरा होते – होते यहॉं जीवन की गति रुक जाती है।पता नहीं कब क्या हो जाए।तभी सन्नाटा छा जाता है।जुगल जी नौटंकी से एक तान उठाते हैं – ‘हमको मरने का खौफो खतर ही नहीं’ और एक मित्र मुँह से नगाड़े के बोल निकालने लगते हैं …किड़िक … किड़िक …किड़िक … किड़िक …धॉं। बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं अचानक इन बुजुर्गों को आखिर हो क्या गया है ।
सभी कठिनाइयों के बाबजूद सैदाबाद में जिन्दगी किसी नयी तैयारी में जुटी है।जितेन्दर अब जीवित नहीं है। घोड़ी के मरने के बाद उसका टॉगा बिक गया ।अब उसका बेटा आटो चलाता है, सैदाबाद से जहानाबाद तक।संकट जितना ही गहराता है उससे खेलने की ताकत भी उसी अनुपात में पैदा होती है, यह जिन्दगी का उसूल है और सैदाबाद भी इसका पर्याय नहीं।
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