याद आता है गुजरा जमाना 18
मदनमोहन तरुण
लयात्मक रोदन
उनदिनों लड॰कियाँ माँ के यहाँ से श्वसुराल जाते हुए खूब रोया करती थीं। उनका रोना बहुत ही कलात्मक और संगीतमय हुआ करता था। वे रोते - बहुत सारी कथा - सी सुनाती जाती थी। -'माँ मुझे जल्दी बुला लेना।' भइया मुझसे मिलने जरूर आना।' 'ज्यादा तिलकुट मत खाना।' ' ऐ माँ अब बाबू जी को समय पर खाना कौन देगा।' 'मेरे तोते का खयाल रखना।' मेरी बकरी को समय पर बाँध देना।' ऐ माँ तेरी बहुत याद आएगी।' अब मुझे बैगन का भुर्ता कौन खिलाएगा? ..... ..... आदि .... आदि ...। और यह सब रो -रो कर गाते हुए। जो लड॰की ऐसा नहीं करती , उसके बारे में कहा जाता कि वह तो श्वसुराल जाने के लिए तैयार बैठी थी। पति आया और चल दी। जरा रोई भी नहीं। इसलिए लड॰कियों में देर तक और तरह - तरह से रोने की प्रतियोगिता - सी रहती। जिसका रोना जितना ही संगीतमय होता , उसकी उतनी ही प्रशंसा होती। गाँव में कोई बुजुर्ग स्त्री लयात्मक रूप से रोने में एक्सपर्ट होती थी, जो नयी लड॰कियों को रोने की ट्रेनिंग भी देती थी। आज सुनने में यह चाहे जितना भी हास्यास्पद लगे , परन्तु कहीं - कहीं इसका प्रयोग होता ही था।
मेरे पिताजी की बहन श्वसुराल जाते समय बहुत रोया करती थीं। वे अपनी माँ में लिपट जातीं तो उन्हें जल्दी छोड॰ती नहीं थीं। एकबार उन्होंने मेरी उँगली पकड॰ ली और रो- रो कर मुझे भी कहानी सुनाने लगीं , परन्तु मुझे उससे क्या , मैं तो अपनी लाठीवाले घोडे॰ को दौडा॰ने के लिए बेचैन था। बडी॰ मुश्किल से मैं उनसे पिंड छुडा॰ सका। तब से वे जब भी श्वसुराल जाने लगतीं , मैं सावधान रहता कि कहीं उनकी पकड॰ में न आजाऊं।एक बार और मैं फिर उनकी पकड॰ में आ ही गया। इसबार उन्होंने मेरी कमीज का एक सिरा पकड॰ लिआ और रोने लगीं।मैंने उनसे छूटने की बहुत चेष्टा की ,परन्तु छूट नहीं सका। मेरी जेब में पेंसिल छीलने के लिए एक ब्लेड था। मैंने सोचा यदि यह आभी काम नही आया तो फिर कब काम आएगा? मैंने अपनी जेब से ब्लेड निकाला और उससे अपनी कमीज का वह सिरा काट लिआ जो वे पकडे॰ थीं और वहाँ से अपनी पूरी ताकत लगा कर भाग निकला।
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