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Monday, February 28, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 15

याद आता है गुजरा जमाना 15

मदनमोहन तरुण

मिर्च खाओ , बुद्धि बढा॰ओ

मेरे एक सहपाठी की लिखावट मोती जैसी सुडौल थी।इस लिखावट के सिवा उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं था जो उसे गौरव प्रदान कर सके।वह जाति का कुम्हार था।स्कूल से लौटने के बाद वह खेत से बर्तन बनाने के लिए मिट्टी लाता था जबकि हम खा – पीकर खेलते - कूदते थे।इस बात की कहीं –न -कहीं कोई कसक उसके मन में अवश्य थी।इसलिए उसने मोती की नफीस लड़ियों जैसी लिखावट को ही अपना उच्च कुलगोत्र बना लिया था और अपनी महत्वाकांक्षाओं की जंग का सबसे कारगर हथियार। उसकी तुलना में मेरी लिखावट बहुत ही खराब थी।एक दिन उसने मुझे गर्व से कहा – ‘मैं बड़ा होकर मजिस्ट्रेट बनूँगा और सब पर हुकूमत चलाऊँगा।’ जब मैंने अपनी छोटकी मामा से कहा तो वे अवाक रह गयीं। उन्हें यही लगा कि चलित्तर मजिस्ट्रेट बन गया और मैं शायद उसका चपरासी। भला मेरे जैसी खराब हैंडराइटिंगवाले को कोई नौकरी क्यों देगा ? अब बाबा - मामा सब मेरी लिखावट ठीक करने के पीछे पड़ गये, परन्तु कोई परिणाम न निकला।मामा ने दूसरा रास्ता चुना। मेरी दादी के पास एक तोता था जो बहुत कम बोलता था। किसी ने उन्हें बताया कि यदि तोते को खूब मिर्च खिलाया जाए तो वह बोलने तो लगेगा ही बहुत सी नयी चीजें भी सीख जाएगा।दादी ने अपने तोते को खूब मिर्च खिलाया और उनका यह प्रयोग सफल भी हुआ। तोता बोलने ही नहीं लगा उसकी स्मरणाशक्ति भी बढ़ गयी और वह परिवार के कई सदस्यों को उनके नाम से बुलाने लगा और सीताराम कहना तो सीख ही गया।दादी ने सोचा अगर मिर्च का इतना प्रभाव तोते पर पड़ सकता है तो उनके पोते पर क्यों नहीं पड़ सकता। उन्हें यह कत्तई गवारा नहीं था कि एक कुम्हार का लड़का मजिस्ट्रेट बन जाए और उनका पोता उसकी चपरासीगिरी करे।सो तोते पर किया गया प्रयोग उन्होंने मुझ पर भी करने की ठान ली।उनके सख्त अनुशासन में मुझे लम्बे अरसे तक अपने खेत की काली – काली तीखी मिर्चों से जूझना पड़ा।

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Saturday, February 26, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 14

याद आता है गुजरा जमाना 14

मदनमोहन तरुण

मेरा स्कूल

सैदावाद में मेरा स्कूल गॉव के उत्तर दिशा की ओर था।मिट्टी का खपरैल मकान। हम घर से बोरा और खल्ली लेकर स्कूल जाते थे।मास्टर साहब के बैठने के लिए एक कुर्सी थी जिसकी एक टॉंग टूटी हुई थी ।टूटी टॉंग के नीचे कुछ ईटें जमा दी गयी थीं।गुरुजी दूसरे गॉंव से घोड़ी पर चढ़ कर आते थे।उनके आते ही उनका एक प्रिय छात्र उनकी घोड़ी को एक पेड़ से बॉध देता और गुरु जी जब खाने लगते तो वह उसे लेकर चराने चला जाता। एसका लाभ यह था कि उसे पढा॰ई से मुक्ति मिल जाती थी।

बरसात के दिनों में गुरुजी महीने में दो – तीन बार ही आते थे।वह उनकी खेती का मूल्यवान महीना होता था।

स्कूल प्रातः काल सात बजे के आसपास अरम्भ होता था। पहुँचते ही सबसे पहले प्रार्थना होती –

‘ हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।

लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी , धर्म रक्षक वीर , व्रतधारी बनें।

उसके बाद गिनती शुरू होती।सबसे अगली पंक्ति में वह विद्यार्थी खड़ा होता जो उस दिन सबसे पहले पहुँचता था। उसे ‘मीर’ कहते थे।उस दिन के प्रार्थनादि का संचालक वही होता था।प्रार्थना के बाद गिनती शुरू होती ।मीर कहता ‘एक’ फिर उसके बाद एक के बाद एक विद्यार्थी दो… तीन चार … कहते चले जाते।अनुपस्थित विद्यार्थी को घर से पकड़ कर लाया जाता , फिर खजूर की छड़ी से उसकी पिटाई होती।इस बीच प्रार्थना के बाद पहाड़ा शुरू होता –

एक्का एक ।दू ए दू। तीने तीन … सतर का सतरह । सतरह दूनी चौंतिस …

और फिर ‘ककहरा’ –

क का से कि की कु कू बेदाम

के कै पिंजड़ा को कौ दाम

बेंग बोले कं कः।

च चा से चि ची चु चू बेदाम

चे चै पिंजड़ा चो चौ दाम

बेंग बोले चं चः…

इस प्रकार पूरा ककहरा खेल – खेल में याद हो जाता।

स्कूल से गुरुजी के अर्जन का एकमात्र माध्यम था वर्ष में एक बार विद्यार्थियों से प्राप्त गुरुदक्षिणा ।इसे समारोह की तरह भादो के महीने में गणेश चतुर्थी से आरम्भ कर अगले दस दिनों तक मनाया जाता था। इसमें विद्यार्थी और उनके परिवार के लोग समान उत्साह से भाग लेते थे। जिस प्रकार की बहुरंगी डांडिया का प्रयोग गुजरात में डांडिया रास के अवसर पर किया जाता है, ठीक उसी प्रकार की रंगीन डांडी उस अवसर पर हर छात्र खरीदता था। गुरुजी भी उस अवसर पर साफ – सुथरी कमीज – धोती पहन कर आते थे।सभी विद्यार्थी स्कूल से एक – एक विद्यार्थी के घर जाते ।जिस विद्यार्थी के घर हम पहुँचते वहॉं गुरु जी को सम्मान पूर्वक बिठाया जाता एवं उस परिवार के विद्यार्थी की ऑंखें पट्टी से बॉध दी जाती और उसके माता – पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के सामने उसे खड़ा कर दिया जाता तथा अन्य विद्यार्थी उसके पीछे खड़े होकर डंडिया बजा – बजा कर ‘चकचंदा’ गाते।वैसे इस समारोह का नाम भी चकचंदा ही था। इसका प्रारंभ गणेश जी की प्रार्थना से होती -

भादो चौथ गणेश जी आए ।

सब चटियन मिल चलो नहाए।

जमुना जल के निर्मल नीर।

वहॉ नहाए सब कोई मिल।

भादो महीने की चतुर्थी के दिन गणेश जी का आगमन हुआ है।हम सब विद्यार्थी स्नान करने चलें।यमुना जी का पानी स्वच्छ है। सब लिजुल कर नहाएँ।

इसके बाद ताल बदल जाता –

चकचक चॉदनी।

पानी भरे ब्राह्मणी।

लाल दुपट्टा ओढ़ के।

छाती कम्मर मोड़ के।

एकदम सफेद बर्तन से ब्राह्मणी पानी भर रही है।वह अपनी छाती और कमर समेटे हुए तथा लाल दुपट्टा ओढ़ कर पानी भर रही है।

लगता है ये पंक्तियॉं पूजा के लिए गुरुपत्नी द्वारा की जाने वाली तैयारी से सम्बध्द है।गुरुपत्नी लाल साड़ी पहनकर पूजा के लिए पानी भरती होगी। इसमें तनिक रसिकता भी है जिसमें गुरुपत्नी के लोचदार शरीरयष्टि की ओर भी इंगित किया गया है।

‘खड़े – खड़े गोड़बा पिरा हौ गे मइया।

अँयाखिया मोर दुखैलो गे मइया ।

तनिको दरदिया न लागौ गे मइया।

तनिको अब देरिया न करिहेंगे मइया।

गुरु जी के दछिनमा देहू गे मइया।’

ऐ मॉं ! मेरी ऑखें दुखने लगीं। खड़े – खड़े मेरे पॉव दुखने लगे।ऐ मॉ क्या तुम्हें दया नहीं आती ? अब जरा भी देरी मत करो मॉं । अब गुरु जी को दक्षिणा दे दो मॉ।

आगे की पंक्तियों में विद्यार्थी के माता - पिता को समझाया जा रहा है कि गुरुदक्षिणा देने में कोई कंजूसी न की जाए क्योंकि धन तो नाशवान है –

घर में राखो चोर ले जाए।

बाहर राखो चील्ह ले जाए।

गुरु जी को देदो नाम हो जाए।

धन किसी का अपना नहीं होता।उसका क्या ठिकाना? अगर घर में रखो तो चोर ले जा सकता है और अगर बाहर रखो तो चील ले जा सकती है। इससे तो अच्छा है कि गुरु जी को दे दिया जाए।उससे समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी।

मगही का यह चकचंदा उस भाषा की लयात्मकता से युक्त है।यहॉ हर शब्द को लयात्मकता प्रदान की जाती है जैसे –

मॉ - मइया

ऑख - अँखिया

गोड़ - पॉव- गोड़वा

दरद - दरदिया

दक्षिणा -दछिनमा

देरी -देरिया

अपनी संतान को संकट में पड़ा देख माता - पिता गुरु जी को अपनी क्षमता के अनुसार अनाज , धोती , मिठाई आदि देते थे।दक्षिणा पाकर गुरु जी उस विद्यार्थी की ऑखों की पट्टी खोल देते और उसे रोली – अक्षत का टीका लगा देते तथा हम विद्यार्थी एक बोरे में वह सामान डाल कर अन्य विद्यार्थी के घर की ओर चल पड़ते।यह स्कूल का सबसे मोहक समारोह था।

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Thursday, February 24, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 13

याद आता है गुजरा जमाना 13

मदनमोहन तरुण

पर्व -त्योहार

होली का त्योहार हमारे गॉव का सबसे लोकप्रिय त्योहार था।जैसे ही फागुन की फगुनहट भरी हवा चलने लगती और सूखे पेड॰- पौधों में भीतर – हरियाली की सुरसुराहट जागने लगती वैसे – वैसे स्त्री - पुरुष सबके मन में एक नयी सनसनाहट जागने लगती।जाड़े की रजाई से निकल कर उनके बोल जाग उठते।आम में नये टूसे फूट पड़ते और बरस भर की मौन कोयल अपना पंचम छेड़ने की तैयारी करने लगती।

मेरे घर मे होली के गायन के सारे साजो सामान थे ।ढोलक , झाल , करताल।मेरे मित्र हरिनारायण जी के पिताजी गॉव के एकमात्र ढोलकिया थे।मगर वे एक नम्बर के आलसी आदमी थे।वे शाम के सात बजे ही सो जाते थे।उन्हें जगाना बहुत कठिन काम था। इन सारी बातों से चिढ़ कर गॉव के एकाध और लोगों ने भी ढोलक बजाने का अभ्यास किया था , परन्तु उसमें वह बात कहॉं जो अवध मिसिर के ढोलक की ताल में थी।अंततः हर प्रकार से उनकी नींद तुड़वाई जाती और अगर वे एक बार जग गये तो फिर जैसे उनके हाथ भी जाग जाते और ढोलक होली के बोलों पर रात भर ढुमकता रहता।

फगुआ की शुरूआत ढोलक और ढोलकिया की अबीर लगा कर पूजा से होती।पहली होली देवताओं के स्मरण से होती ताकि सबकुछ निर्विग्घ्न सम्पन्न हो –

तिरबेनिया में राम नेहाऽऽऽए , सुरुज उगे के बेरिया।होरी हो हो हो , होरी हो हो।

तिरबेनिया में राम जी नेहाए रामा सुरुज उगे के बेरिया। अहो तिरबेनिया हो अन्हुआरे।’

अब बोल तेज होने लगते। झाल और करताल की झनकार के साथ लोगों की मूड़ी पहले धीरे – धीरे फिर जोर – जोर से हिलने लगती।होली की लय को बनाए रखना कुछ थोड़े से लोगों का काम था बाकी तो बोल के नाम पर मजे लेने में लग जाते।इसमें जवान, वृध्द, बच्चे सभी रहते। स्त्रियॉ घर के भीतर से सुनती रहती।मेरा गायन आसमान फाड़ू आवाज में होता जिसका उद्देश्य था भीतर बैठी दादी को सुनाना कि मैं भी होली गाने में कम नहीं हूँ। एक आवाज और भी सबसे तेज होती ।वह थी नईम की जो शायद इतनी ऊँची आवाज में इसलिए गाता कि उसकी नई बीबी उसकी आवाज को सुन कर सराह सके। उसकी नई - नई शादी हुई थी।दादी दूसरे दिन ठुनकी मारती ‘ई नईममा अपनी मेहरारू को सुनाने के लिए आसमान चीरता है।

’भॅग की एक खेप चल जाने के बाद होली और भी गहरा जाती ,अब ईस – परमात्मा से हट कर रसीले बोल निकलने लगते।कुछ बुजुर्ग सावधान करते 'हॉ बच्चे भी हैं – जरा सम्हलके … मगर फिर होश पर होली का कब्जा हो जाता और बोल पर बोल निकलने लगते –

गोरिया पातरी ,जइसे लचके लउँगिया के डार …

निहुरी – निहुरी बहारे अँगनवा, हो गोरिया निहुरी।

निहुरी – निहुरी निहारे जोबनवा हो देवरा, निहुरीनिहारे जोबनवा।

भर फागुन बुढ़बा देबर लागे , भर फागुन।’

फगुन जैसे - जैसे बीतने लगता वैसे – वैसे नई तैयारियॉं होने लगती।हम बच्चे घर – घर लकड़ी , गोइठा जमा करने निकलते और हर दरवाजे पर गाते –

'ए जेजमानी तोरा सोने के केबाड़ी दू गो गोइठा द …’

लोग अपनी इच्छा से लकडी॰ - गोइठा देते और जो न देता उसके घर हम दॉव लगा कर उसकी कोई चीज रातोंरात होलिका पर चढ़ा आते।इसके साथ ही होलिका - दहन के दिन की एक और तैयारी चलती – लुकवारी बनाने की । एक पतले लोचदार लोहे के तार के अंतिम सिरे पर खूब कपड़ा लपेट कर गोला - सा बना लिया जाता और उसे दिन - रात किरासन तेल में भींगने के लिए छोड़ दिया जाता।होलिका जलते ही उसमें आग लगा कर उसे भॉजते हुए हम मैदान में निकल जाते।

होलिका के दूसरे दिन धुरखेरी होती। रंग से पहले धूलि – वन्दन का त्योहार।सवेरा होते ही बच्चों और युवाओं की टोली अपने नेतृत्व में यह काम शुरू कर देती।गली में दौड़ा – दौड़ी मच जाती ।किसी पर ताकत से ,तो किसी पर छल से छुप कर कीचड़ डाली जाती। उनकी तो शामत आ जाती जो इससे बचने की चेष्टा करते।दोपहर तक हर कोई काला - कलूटा भूत बन जाता।फिर हमसब मिलकर अगजा जलने के स्थान पर जाते और वहॉ की राख अपने शरीर मे पूरी तरह लपेट कर नदी मे स्नान करते।

अब शुरू होती होली।रंग और गुलाल का त्योहार। घर मे पूरे परिवार के लिए नए कपड़े खरीदे जाते।पुरुषों के लिए कपड़े की एक पूरी थान जिससे बच्चे ,जवान ,बूढ़े सबों के लिए बिलकुल एक ही प्रकार का कुर्ता बनता और सब के लिए एक ही प्रकार के कोर की धोती आती। महिलाओं के लिए एक ही प्रकार के कोर की साड़ी होती तथा ब्लाउज का कपड़ा।ये होली के पहले ही सिल जाते और धुरखेरी के बाद पूरा परिवार जब उसे पहनकर बाहर निकालता तो लगता कि किसी खिलौने की फैक्टरी से ढेर सारे खिलौने एक साथ ही निकाल पड़े हैं।नये कपड़े पहनने के बाद हम घर के बड़े लोगों के पॉंव छूते और वे अबीर लगा कर हमें आशीर्वाद देते।इसके बाद हम घर के बहार निकल कर एक – दूसरे पर रंग डालते। रंग नये कपड़े पर ही खेला जाता था।कभी तो धोने से रंग निकल जाता कभी कोई रंग हमेशा के लिए बना रह जाता।घर में उस दिन टोकरी भर – भर कर माल पुआ बनता।कई गंगाल में शर्बत बनती।कुछ सादी , कुछ भॉंग वाली।जो -जो भी बाबा से मिलने आता, उसे भरपेट शर्बत पिलाई जाती।गॉव की महिलाएँ थाल लेकर आतीं और उन्हें पुआ दिया जाता।उस दिन रात में होली गा कर उसका समापन चैती से किया जाता।

‘आज चइत हम गाएब हो रामा एही रे ठैयॉ।’

रात बीतते – बीतते फगुआ की तरह ही चैती भी गर्माती जाती किन्तु कुल मिला कर इसकी रसिकता में कहीं शालीनता भंग नहीं होती और निरंतर मृदुता बनी रहती –

‘रोज – रोज बोले कोइली भोर – भिनुसरवा , आज काहे बाले आधी रतिया हो रामा , सूतल पियबा।

सूतल पिया के जगाबे हो रामा , भोर – भिनुसरवा।

होबे द बिहान कोइलो खोंतवा उजारबो , जड़ से कटैबो निमी गछिया हो रामा , सुतल पियबा।’

या

‘नकबेसर कागा ले भागा नकबेसर कागा ले भागा। सैयाँ अभागा ना जागा ,नकबेसर कागा ले भागा।’

इस उल्लासपूर्ण पर्व के बीतते ही गॉव की जिन्दगी फिर से अपनी रफ्तार में आजाती।हमारे मुहल्ले में कहार और कुम्हारों के परिवार भी रहते थे।सब जैसे हमारे परिवार के सदस्य हों। कहारिन स्त्रियॉ घर में कुएँ से पानी भर देती तथा मामा के काम में हाथ बॅटातीं।धान की कुटाई ढेंकी से होती और चूड़ा समाठ से कूटा जाता। चूड़ा तो मौसम आने पर रात – रात भर कूटा जाता और घर में उल्लास का वातावरण बना रहता ।गेहूँ जॉंता पर गीत गा गा कर पीसा जाता।दादा जी वैद्य थे अतः घर में तरह – तरह की दवाइयॉं भी बनती रहती।काढ़ा बनने के बाद महीनों या शास्त्रीय निर्देश के अनुसार वर्षों के लिए जमीन के भीतर घड़ों में भर कर गाड़ दिया जाता।च्यवनप्राश ,भष्म और बूटियाँ बनती ही रहती। सारा निर्माण बड़ी मात्रा में होता और पूरे विधि –विधान से।हमारा एक औषधालय जहानाबाद में भी था जिसे मॅझला बाबा चलाते थे।उनकी अनुपस्थिति में बबूजी, जो अभी पढ़ रहे थे।मॅझिला बाबा उच्च कोटि के घुमक्कड़ थे।उन्होने विवाह नहीं किया था। वे समय मिलते ही अपने प्रदेश से बाहर की यात्रा पर निकल पड़ते और कई बार महीनों – महीनों तक नहीं लौटते और लौटते तो सब के लिए कोई न कोई सामान अवश्य लाते । वे पुरानी पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ जमा करने के शौकीन थे। कई बार वे अपने साथ संस्कृत ग्रंथों की दुर्लभ प्रतियाँ लाते। मेरे घर में लकड़ी का एक विशाल बक्सा था जो ऐसी दुर्लभ पुस्तकों और मानचित्रों से भरा था।इनकी तुलना में मेरे बड़का बाबा मुक्त जीवन व्यतीत करते थे।वे बड़े शौकीन थे। उनका पूरा पहनावा सफेद होता ।धुली हुई सफ्फाक धोती और बगलबन्दी , सिर पर बड़ा -सा मुरेठा और सफेद छाता।सलीकेदार जूता।कद मॅझोला ।टहाका गोरा रंग।चमड़ी चमकती हुई।वे पुराणों के गहरे अध्येता थे ।उनका सबसे प्रिय ग्रंथ था महाभारत । उन्हीं की गोद में बैठे – बैठे मैंने सारे वेद – पुराण सुने।मॅझिला बाबा और बड़का बाबा में अथाह प्रेम था , परन्तु दोनों की रुचियॉं एकदम अलग – थीं।मॅझिला बाबा एक सुविख्यात चिकित्सक थे , परन्तु बड़का बाबा की इसमें कोई रुचि नहीं थी।मॅझिला बाबा असाधारण घुमक्कड़ थे , परन्तु बड़का बाबा शायद ही कभी बाहर गये ।हॉ, मेरी बड़की मामा जरूर मँझिला बाबा के साथ कभी वृन्दावन, मथुरा , जगन्नाथधाम या कामरूप कामख्या हो आतीं।जब वे लौट कर आतीं तो बड़की मामा की भाषा एकदम बदल जाती थी। वे मगही की जगह कुछ दिनों तक अजीब -सी ब्रज आदि मिली हिन्दी बोलने लगतीं और हमलोगों को रासलीला की नकल कर सुनातीं।मेरी छोटकी मामा को बाहर की यात्रा से कोफ्त होती थी और वे निरन्तर घर की व्यवस्था में ही व्यस्त रहती थीं।गृह व्यवस्था में भूत – भविष्य को देख कर चलनेवाली उनकी दृष्टि अद्भुत थी और असाधारण था उनका प्रशासन कौशल।उनके इस क्षेत्र में कोई कभी हस्तक्षेप नहीं करता था।परिवार में मैं उनका सबसे प्रियपात्र था।

मेरे घर के ठीक सामने इमामवाड़ा है।मुहर्रम के समय इसकी पूरी देखरेख बाबा कराते थे। आज भी उसकी देखरेख हमारा ही परिवार करता है। उन दिनों मुस्लिम मुहल्ले से हमारे यहॉ खिचड़ा – मलीदा आता था।हमारे घर के शादी – व्याह में मुसलमानों के यहॉ से गेहूँ , घी आदि आया करता था और उनके यहॉ कुछ होता तो मेरे घर से सामान जाता।बाबा ही उनके चिकित्सक थे। बाबा की उनके यहॉ अच्छी प्रतिष्ठा थी।

मुहर्रम में मेरे लिए भी अलग कपडा॰ सिलाया जाता था जिसे पहनकर मैं कर्बला में जाता और छाती पीट -फीट कर लाल कर लेता था। ईद में लोग बाबा से मिलने आते और बाबा उनका मिठाइयों से स्वागत करते थे।

पर्व -त्योहार के उन सुखमय दिनों की याद से अब भी मन - तन में जो ताजगी आजाती है ,उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।

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Sunday, February 20, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 12

याद आता है गुजरा जमाना 12

मदनमोहन तरुण

तुम तो उनकी प्रतिष्ठा ही खा गये !

हमारी परम्पराओं में कई ऐसे प्रतीक हैं जिन्हें सहजभाव से समझना तो दूर , उनके औचित्य - अनौचित्य का निर्धारण बहुत ही कठिन होता है। इस प्रकार की कई स्मृतियों में से एक यह भी है जिसे याद कर होठ मुस्कान से भींग जाते हैं।

बाबा के गुरुदेव का आगमन हुआ था और यह सदा की तरह हमारे घर के लिए एक विशेष अवसर था। सबसे पहले उनके आते ही नाश्ते के लिए रसगुल्ला मँगवाया गया।गुरुजी ने उसे ग्रहण करते समय मुझे भी पास बुला लिया ।मेरे पास जाते ही बाबा ने मुझे आँखों के इशारे से स्पष्टतः बता दिया कि ज्यादा मत खाना। गुरुदेव ने अपनी कस्तरी में से मुझे एक रसगुल्ला देकर कहा-' खाओ।' मैने उनकी आज्ञा का पालन करते हुए रसगुल्ला मुँह में डाल लिआ और धीरे - धीरे उसका रस चूसते हुए उसका आनन्द उठाने लगा। धीरे -धीरे इसलिए कि बाबा की आँखों का इशारा मुझे याद था। मेरा इरादा यह था कि जबतक वे सारे रसगुल्ले खा न लें, तबतक मैं एक ही मुँह में लिए रहूँ।थोडी॰ देर बाद गुरुदेव ने एक और रसगुल्ला मेरी ओर बढा॰ते हुए कहा - 'लो - लो एक और लो।' पर मैंने मना कर दिआ। इससे बाबा के चेहरे पर चमक आ गयी। थोडी॰ देर बाद गुरुदेव ने भी खाना बन्द कर दिया ,परन्तु एक रसगुल्ला उनकी कस्तरी में अब भी पडा॰ था ।थोडी॰ देर तक मैं देखता रहा कि वे अब खाएँगे।परन्तु उन्होंने तो हाथ धो लिया।मुझे लगा अब इस रसगुल्ले को खाने में कोई खतरा नहीं है और इससे बाबा को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। सब सोचकर मैंने अपना हाथ तेजी से बढा॰या और कस्तरी में बचा रसगुल्ला उठाकर अपने मुँह में रख लिआ।मैं चूसते हुए उसका आनन्द उठाने ही वाला था कि मुझे बाबा का गर्जन सुनाई पडा॰।उन्होंने साश्चर्य कहा -' यह क्या!तुम तो हमारे गुरुदेव की प्रतिष्ठा ही खा गये।' बाबा की बात मेरी समझ में नहीं आई।प्रतिष्ठा ? परन्तु कस्तरी से तो मैंने केवल रसगुल्ला ही लिआ था! अबतक बाबा की गर्जन भरी आवाज सुनकर मेरी दादी बाहर आगयी थीं।कोई और घटना न हो इसलिए वे मुझे पकड॰ कर अपने साथ भीतर लेकर चली गईं। उन्होंने पूछा - ' क्या हुआ ? तुम्हारे बाबा इस तरह गुस्से में क्यों आगये ?' मैने कहा -'मुझे क्या मालूम? मैंने तो गुरुदेव के नाश्ता कर लेने पर कटोरी में बचा रसगुल्ला भर खा लिया था।' दादी ने साश्चर्य कहा - 'तुम बचा हुआ रसगुल्ला खा गये?' मैंने गदर्न हिला कर स्वीकार किया। सुनकर दादी थोडी॰ देर चुप रह गयीं ,फिर बोलीं - 'यह तो बहुत बुरा हुआ। तुम्हारे बाबा इसीलिए क्रोधित हुए। गुरुदेव ने नाश्ते के अंत में जो रसगुल्ला छोडा॰ था ,वह उनकी प्रतिष्ठा थी।' दादी की बात मेरी समझ में नहीं आई। दादा जी ने भी क्रोध करते हुए कुछ ऐसा ही कहा था। अब दादी ने मुझे समझाया - ' जब किसी के यहाँ जाते हैं और उनके द्वारा जो खाने के लिए दिया जाता है उसे सब - का - सब नहीं खा जाते। उसमें से थोडा॰ छोड॰ देते हैं।' मैंने पूछा -' यह क्यों ?' तो दादी जबाब देते हुए कहा - यह छोडा॰ गया भाग उस व्यक्ति की ' प्रतिष्ठा' कही जाती है। अर्थात खानेवाला भुख्खड॰ परिवार का नहीं है। उसके घर में खाने - पीने की कमी नहीं है तभी तो वह अन्न छोड॰ कर खाया। यदि वह चाटपोंछ कर खा जाए तो उसके परिवार की अप्रतिष्ठा होती है। लोग समझते हैं उसके घर में संतुष्टिभर खाने को नहीं है।यदि वह बचा हुआ अन्न कोई और खाले तो खानेवाले के परिवार की भी बेइज्जती होती है।' मेरे लिए दादी बातें चुपचाप सुनने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं रह गया था क्यों कि अबतक तो उनकी या हमारी प्रतिष्ठा पेट में पचने की तैयारी कर रही थी।

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Thursday, February 17, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 11

याद आता है गुजरा जमाना 11

मदनमोहन तरुण

गुरु देवो भव

मेरा घर गॉव के अन्यलोगों की तुलना में बहुत बड़ा था। बाहर का बरामदा शानदार था, जिसकी दीवारों पर हमेशा चूने की पुताई की चमक बनी रहती थी।सामने कई विशाल चौकियॉं रहतीं। बाबा ने यहाँ एक पुस्तकालय खुलवा दिया था जहॉ आकर लोग प्रेमचन्द और दयानन्द सरस्वती की कितावें पढ़ते थे। घर में हमेशा कोई न – कोई आयोजन होता ही रहता था।महाभारत और भागवत की कथा महीनों चलती और गॉव के लोग हर रात आकर बड़ी श्रध्दा से उसे सुनते और दूसरे दिन उन विषयों पर बातें भी करते थो।कभी सप्ताह भर राम के नाम का अटूट जाप चलता और अन्य गॉंवों के लोग भी उसमें शामिल होते। हमारे गॉव में एकाध ऐसे लोग भी थे जो करीब – करीब नहीं के बराबर शिक्षित थे, परन्तु उन्हें तुलसीदास का पूरा रामचरितमानस याद था।जब भी जीवन - समाज में किसी व्यवस्था – अव्यवस्था का प्रश्न उठता तो वे मानस की कोई चौपाई ,आदेश या सुझाव की तरह प्रस्तुत कर देते और सामान्यतःउसी के आधार पर कई निर्णय हो जाते। साहित्य और जीवन का यह गहरा सम्बन्ध देखते ही बनता था।निश्चित रूप से जीवन और साहित्य का यह सम्बन्ध मात्र उसके धर्म से जुड़ाव के कारण नहीं होता ।यह आता है उसके सत्याधार की उस विश्वसनीयता से जो हमारे जीवन को व्यवस्था देती है।इस विश्वसनीयता में अपने दृष्टांतों के साथ एक पूरी परम्परा यात्रा करती रहती है। उसमें पात्र ओर उसके स्रष्टा के व्यक्तित्व की शक्ति भी सन्निहित होती है।

इन आयोजनों में बाबा के गुरुजनों का आना एक विशेष अवसर होता। बाबा तब सबकुछ भूल कर उनकी सेवा में लग जाते।उनके स्नान करने के लिए स्वयं पानी भरते। स्नान के बाद खुद ही उनकी धोती साफ करते। घर में यद्यपि नौकरों की कमी नहीं थी , परन्तु गुरु की सेवा वे स्वयं करते।रात्रि काल में वे उनके पॉंव में तेल लगाते। दादी गुरुजी की पसंद का भोजन बनाती। घर में प्याज –लहसुन ऐसे भी नहीं आता था ,परन्तु इस बात को हर प्रकार से जताने की चेष्टा की जाती कि गुरुजी के आने से हम सभी अहोभाग्य हैं।बाबा गुरुजी के सामने अपने विद्यालय के दिनों के संस्मरण सुनाते। किस प्रकार वे भोजन बनाने के लिए लकड़ी तोड़ने जाते , फिर स्वयं ही भोजन भी बनाते।उन संस्मरणों में सबसे रोचक था रात्रिकालीन अध्ययन।सामान्यतः विद्यार्थीगण गोधूलिबेला के पूर्व तक ही अपना अध्ययनकार्य समाप्त कर लेते थे और रात्रिकाल में जल्दी ही शयन कर ब्राह्मबेला से अपना दैनिक कार्य आरंभ करते थे।बाबा अपने रात्रिकालीन अध्ययन के संस्मरण सुनाते हुए भावुक हो जाते ।जिस दिन उन्हें रात में अध्ययन करना होता उस रोज वे दिन में ही ढेर सारीसूखी पत्तियॉं जमा कर लेते और रात में अपने आगे आग जलाकर उसमें एक - एक पत्ती डालते जाते और उसी के आलोक में पढ़ते।घर आने की छुट्टी जल्दी नहीं मिलती थी। गुरु ही इस काल में माता - पिता की भूमिका में होते । गुरु के प्रति सम्मान का यह रूप सम्भवतः इसी निकटता और आत्मीयता का परिणाम था।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 10

याद आता है गुजरा जमाना 10

मदनमोहन तरुण

कर्जदार बरगद

मेरे घर के समने कुछ ही दूरी पर गोलक पुर गाँव था। गोलकपुर यादवों का गाँव है। आज भी वहाँ सबसे अधिक संख्या उन्हीं की है। वह गाँव मेरे लिए दो करणों से अविस्मरणीय है - एक तो जोधी बहू ग्वालिन और दूसरा वहाँ का कर्जदार वटवृक्ष।

जोधीबहू एक नटे कद की अत्यंत सह्रदय महिला थी। मेरे बाबा के प्रति उनमें आगााध श्रद्धा थी। बाबा कृष्ण के अनन्य भक्त थे और वे जोधीबहू को राधिका मनते थे और उन्हें भौजी कह कर बुलाते थे।जोधीबहू नियमित रूप से हाडी॰भर दही लेकर सबेरे आतीं और बाबा के लिए कटोराभर दही दे जातीं। हमारे घर में दूध - दही की कमी नहीं थी । आनेक गायें थीं ,परन्तु जोधी बहू की अटूट श्रद्धा से भरे दही में जो स्वाद था वह भला और कहाँ !

जोधीबहू जबतक जीवित रहीं तबतक यह क्रम अटूट रहा। मेरे परिवार के सभीलोग उनका बहुत सम्मान करते थे।

गोलक पुर गाँव के प्रवेश द्दार पर ही एक विशाल बड॰ का वृक्ष था,जिसपर ताड़ का एक लम्बा सा पेड़ उगा था। जोधीबहू उसकी कहानी सुनाती हुई कहती थी, पिछले जनम में बड॰ के पेड॰ ने ताड॰ से कर्ज लिया था । बड॰ ने अपने जीवनकाल में वह कर्ज नहीं चुकाया। उस जन्म का महाजन ताड॰ इस जन्म में उसकी छाथी कर्ज वसूलने को खडा॰ है ।बड॰ जबतक उसका कर्ज नहीं चुका देता ,तबतक ताड॰ का पेड॰ उसकी छाती पर ऐसे ही खडा॰ रहेगा। कहानी सुनाकर जोधी बहू अपने कान पर हाथ रखतीं और कहती -' दूसरे सेभगवान न करे कि कर्ज लेना पडे॰ और अगर कभी ले तो चाहे जोभी हो उसे वसूल जरूर करे।नहीं तो देखिए बेचारे बड॰ की हालत है !

मेरे गॉव के कुएँ की शादी गोलकपुर के उसी वटवृक्ष से हुई है।इस तरह वह हमारे गॉव का दामाद है। हमारे गॉव में जब कोई शादी होती है तो उसी वृक्ष का पत्ता लाया जाता है और कुएँ से पानी निकाल कर मड़वा के दिन उसी पत्ते से पानी छिड॰क कर उसे नहलाया जाता है। इस तरह प्रकृति और पुरुषके साथ की यह परम्परा अटूट रूप से जारी है।

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Sunday, February 13, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 9

याद आताहै गुजरा जमाना 9

मदनमोहन तरुण

सहृदय सैनिक

हिन्दुओं के मुहल्ले में हमारा घर पूरब की ओर गॉव के सबसे आगे या अंत में था, जिसके आगे खेत ही खेत थे।हमारे घर के सामने पीपल का एक विशाल पेड़ था। धूप में चमकती और हवा के झोकों पर झूलती इसकी एक -एक आबदार पत्ती मे गजब की गरिमा थी। इसकी लम्बी छाया हमारे घर के बाहर के चबूतरे पर पड॰ती थी जहाँ हमारे बाबा गाँव के किसी मामूली या गंभीर झगडो॰ में या तो सुलह कराते या दंड देते थे। गाँव के लोगों की उनपर अटूट श्रद्धा थी। यह वृक्ष मुझे इसलिए भी याद आता है कि देश के विभाजन की घोषणा के बाद गाँव की रक्षा के लिए फौज के लोग भेजे गये थे और वे हमारे दालान में ही रहते थे।उनके पास एक तीतर पक्षी था जिसे वे इस पेड॰ की शाखा से लटका दिया करते थे। वे बहुत ही सहृदय सैनिक थे। गाँव के लोग उन्हें सदा घेरे रहते थे। उन्हें आसपास की आंतरिक खबरें भी उनसे तथा उनके निजी आंतरिक सूत्रों से मिलती रहती थी।

मुझे वे सबेरे -सबेरे घर से बुला लेते और मुझे कटोरा भर दूध करीब - करीब जबरदस्ती पिलाते। उनके जाने के बाद हर किसी को लगा जैसे उनके अपने परिवार के लोग चले गये। युद्ध जैसा कठिन कार्य करनेवाले सैनिकों की यह छवि शायद ही कोई भुला पाया हो।

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