याद आता है गुजरा जमाना - 2 8
मदनमोहन तरुण
जहानाबाद के वे दिन -2
लोगों के एक स्थान से दूसरी जगह जाने के लिए पाँव से चलनेवाले रिक्सा का प्रयोग किया जाता था। कार एकाध लोगों के पास ही थी। ठाकुर बाबू यहाँ के सबसे धनाढ्य व्यक्ति थे। वे अँग्रेजों के जमाने के रईस थे। शहर में उनके कई राजमहलों जैसे बडे॰ - बडे॰ मकान तथा कई बडे॰ -बडे॰ मिल थे।उनका रहन -सहन उच्चकोटि का था।वे सामान्यतः कभी -कभार अपने विशाल रथ पर निकलते थे। इसमें दो विशाल और स्वस्थ काले घोडे॰ जुते होते थे। पीछे की गद्दीदार चमडे॰ की चमचमाती सीट पर वे स्वयं बैठते थे। यदि कोई महिला भी बैठी होती तो पीछे की सीट को चारों ओर से बन्द कर दिया जाता। इस रथ के पीछे उनका सजाधजा दरवान खडा॰ रहता और आगे की ऊँची सीट पर खास कपडो॰ में सजा रथचालक बैठकर इसे चलाता था। जब कभी यह रथ बाहर निकलता तो लोग उसे देखने के लिए अपने स्थान पर खडे॰ हो जाते थे।
मारवाडि॰यों की शहर में सामान्यतः कपडों की दुकाने थीं। वे अपेक्षया अधिक धनी थे। यहाँ के बाजार में आवश्यकता की हर चीज मिल जाती थी।आसपास के गाँवों के लोग अपनी आवश्यकता की चीजें यहीं खरीदते थे।शहर में दो बैंक थे ।जहानाबाद में पंजाब नेशनल बैंक और जहानाबाद कोर्ट में स्टेट बैंक आँफ ईंडिया।बैक के अलावा जहानाबाद में एक बडा॰ पोस्ट आँफिस और एक सरकारी अस्पताल था।लोग सामान्य रूप से धोती और कुर्ता पहनते थे। गाँधीवादी , खादी का और अन्य लोग अपनी हैसियत के मुताविक सिल्क या महीन सूती का कुर्ता पहते थे। फुलपैंट सामान्यतः सरकारी अधिकारी पहनते थे या थोडे॰ से गिने - चुने लोग। मुसलमान कुर्ता - पाजामा पहनते थे।कुछ के सिर पर टोपी भी होती।मुस्लिम औरतें बुरके से अपना पूरा शरीर ढंके रहती थीं। हिन्दू महिलाएँ साडी॰ पहनती थीं।
चौदह की उम्र पार करते - करते लड॰कियों को भी सलवार - कुर्ता की जगह साडी॰ पहनना पड॰ता था । सोलह से सत्रह की उम्रतक लड॰कियों की शादी सामान्यतः कर दी जाती थी। लड॰की के जन्म के साथ माता - पिता की चिन्ता बढ॰ जाती थी। उनकी पढा॰ई - लिखाई से ज्यादा , परिवार के लोग उनके विवाह की बात सोचने लगते थे। लड॰की की शादी के लिए काफी दहेज देना पड॰ता था।
जहानाबाद में उनदिनों दो प्रमुख स्कूल थे- महात्मा गाँधी हाई स्कूल और मुरलीधर माध्यमिक विद्यालय। इसके संचालक मुरली बाबू शहर के रईसों में थे । लड॰कियों के अलग स्कूल नहीं थे, न तो सहशिक्षा का प्रावधान था। लोग लड॰कियों की शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही करते थे।अगर कोई मास्टर पढा॰ने आता तो परिवार का कोई सदस्य पास बैठा उस पर ध्यान रखता था। लोग प्रयास करते कि उन्हें पढा॰ने के लिए कोई बूढा॰ मास्टर रखा जाए।
जहानाबाद में उनदिनों कोई कालेज नहीं था। लोगों को आगे की पढा॰ई करने के लिए पटना या गया जाना पड॰ता था। जहानाबाद का पहला काँलेज, स्वामी सहजानन्द कालेज 1957 में खुला।जबतक इसका अपना भवन नहीं बन गया , तबतक इसे हमारे स्कूल के होस्टल में चलाया गया।मैं इसके प्रथम बैच का विद्यार्थी था।काँलेज के प्राचार्य थे छोटेनारायण शर्मा , ऊँग्रेजी के विद्वान थे और महर्षि अरविन्द के भक्त। बाद में वे उनकी भक्ति में इतने रमे कि कालेज से त्यागपत्र देकर पाण्डिचेरी चले गये और वहाँ से देश - विदेश में जाकर आरविन्द के मतों का प्रचार कने लगे। उनका मुझपर बहुत स्नेह था। जब मैं लालबहादुर शास्त्री अकादमी आँफ एडमिनिस्ट्रेशन में था ,तो वे मुझसे मिलने आए थे।इस कालेज में बहुत ऊच्छे प्राध्यापक थे।उनमें से कुछ को मैं कभी भुला नहीं पाया। दास बाबू हमलोगों को मनोविज्ञान पढा॰ते थे।उनका अध्ययन गहन था ,जिससे उनके अध्यापन में सहजता आगई थी। एक अच्छे शिक्षक के लिए आवश्यक है कि उसे अपने विषय का पूरा ज्ञान हो,परन्तु यह भी आवश्यक है कि वह सहृदय भी हो । उसकी सहृदयता से उसके विद्यार्थी की ग्रहणशीलता बढ॰ जाती है। मदन बाबू हिन्दी के ऐसे ही प्राध्यापक थे। उन की पढा॰ई भी बहुत गहन और रोचक होती थी।उनसे मेरा अच्छा सम्बन्ध था।
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