याद आता है गुजरा जमाना -26
मदनमोहन तरुण
माँ ! मैं जा रहा हूँ
अब हमलोग अपने नये मकान में रहने लगे थे।यह एक विशाल मकान था जिसमें हर किसी के लिए अलग - अलग कमरे थे।इसका नाम रखा गया था 'परमानन्द भवन'।मँझिला बाबा के नाम पर, जिन्होने सही अर्थों मैं बाबूजी के पिता की भूमिका निभाई थी।घर से मेरी दादी और बड॰का बाबा भी यहीं आगये थे।
मेरी दादी मेरे पिताजी को बहुत प्यार करती थीं।वैसे तो हर माँ अपने बेटे को प्यार करती है, किन्तु उनका प्यार बहुत ही अनूठा और असाधारण था। बाबूजी एक चिकित्सक थे। वे सवेरे आठ बजे नाश्ता कर औषधालय चले जाते थे, किन्तु उनके जाते समय दादी उन्हें गोद में बिठातीं और उनके सिर पर हाथ रख कर थोडी॰ देर तल्लीनता से आँख मूँदकर अपनी पूरी हथेली उनकी पीठ पर फिराती थीं। बाबूजी भी बच्चे की तरह नियमित रूप से उनकी गोद के पास बैठकर ही औषधालय या कहीं जाते थे। जब दोपहर में वे लौटते तो अपनी जेब से सारे रुपये निकालकर दादी को देदेते। दादी उसे छूतीं और फिर उन्हें देदेती थीं।हमलोग कभी जब चिल्लाने लगते कि -'दादी सारा पैसा बाबूजी को ही देदेती हैं, हमलोगों को नहीं; '-तो वे कुछ पैसे हमलोगों में भी बाँट देती थीं।बाबूजी रात में बारह बजे के बाद ही औषधालय से लौटते थे।दादी यदि उसके पहले सो भी जातीं तो बाबूजी के दरवाजे पर दस्तक देते ही वे चैतन्य होकर जाग जातीं और अपने बेटे का स्वागत करती थीं। बाबूजी के सोने जाने के समय भी वे एक बार अपनी हथेली उनके सिर से पीठ तक जरूर घुमाती थीं। मैंने इस पूरे क्रम को दादी के जीवनकाल में कभी अनियमित होते नहीं देखा। दादी जब नब्बे वर्ष की हो गयीं , तब भी उनके असाधारण पुत्रप्रेम का क्रम नहीं बदला।बाबूजी उससमय तक पाँच बच्चों के पिता हो चुके थे और हमलोग भी छोटे नहीं थे। परन्तु, वे भी दादी के पास एक छोटे बच्चे की तरह ही बैठते।मुझे दादी के बाबूजी के प्रति इस व्यवहार से बहुत हैरानी होती।मेरी माँ तो कभी हमलोगों को इसतरह प्यार नहीं करती ! मैं जब दादी से इसका कारण पूछता तो वे बहुत गंभीर होजातीं। उनकी आँखें आँसुओं से तर होजातीं और वे चुपचाप आकाश की ओर देखने लगतीं। दादी को इस प्रश्न से पीडि॰त होते देखकर न मैंने फिर कभी यह प्रश्न उनसे पूछा , न कभी उन्होंने कुछ बताया। फिर भी मेरे मन में यह सवाल उमड॰ता - घुमड॰ता रहा कि ऐसा क्यों ?
एक दिन मैंने यही सवाल अपने दादाजी से पूछा।सुनते ही दादाजी गंभीर होगये और उनकी आँखे नम होगयीं। परन्तु , उन्होंने दादी के इस आचरण का जो कारण बताया वह असाधारण ही नहीं , अविश्वसनीय एवं अत्यन्त कारुणिक था।
दादाजी ने बहुत दूर देखती निगाहों से डूबी -डूबी आवाज में कहा - 'तुम्हारे पिताजी का जन्म अपने छह भाइयों के बाद हुआ था। वे उनमें सबसे छोटे हैं।'अपने भाइयों में सबसे छोटे ?' मैंने साश्चर्य कहा - 'वे हैं कहाँ ? मैंने तो उन्हें कभी नहीं देखा।' मेरे प्रश्न से दादाजी की आवाज भरभरा गयी और आँखें नम हो गयीं। उन्होंने कहा -' वे नहीं रहे।' कहकर दादाजी थोडी॰ देर चुप रहे फिर उन्होंने कहा -' जब मेरा विवाह हुआ तो मेरी उम्र अठारह साल की थी। तुम्हारी दादी खुले गौरवर्ण की अत्यन्त सुन्दर महिला थीं। पूरे परिवार में यह बहुत दिनों के बाद होनेवाला विवाहोत्सव था।उनके घर में आने के बाद चारों ओर खुशी की लहर फैल गयी।उनका स्वभाव बहुत मधुर था।उन्होंने कुछ दिनों के बाद घर का पूरा दायित्व स्वयं सम्हाल लिआ।हमारा समय बहुत आनन्द से बीतने लगा। विवाह के बाद जब दस साल बीत गये तो लोगों को चिन्ता होने लगी।सभीलोग घर में एक सन्तान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे भी चिन्ता हुई।कुछ दिनों बाद मेरे गुरु जी आए। सबने उनके सामने परिवार की चिन्ता रखी। उन्होंने कुछ पूजा -पाठ किया और लगता है ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली।करीब एक वर्ष बाद ही मेरे घर में सोहर ( संतान के जन्म के बाद गाया जानेवाला गीत) की आवाज गूँज उठी।अपनी पहली संतान को देखकर हमलोगों के हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहा।अब मेरा मन कहीं नहीं लगता। मैं दिनभर उसे देखने का कोई - न - कोई बहाना ढूँढ॰ता रहता।वह गौरवर्ण का बहुत ही सुन्दर बच्चा था। उसकी आँखें बडी॰ - बडी॰ थीं।वह धीरे - धीरे बडा॰ होने लगा। समय के साथ उसके कल्लोल से घर का कोना - कोना गूँजने लगा। मैं तो जैसे उसका दीवाना था। कभी भी उसे अपनी आँखों से ओझल होने नहीं देता था। जहाँ जाता उसे अपनी गोद में लिए चलता और कुछ बडे॰ होने पर उसे अपने कंधे पर उठाए चलता।उसके आने से पूरा घर खुशहाली से भर गया।समय कैसे गुजरता है ,यह हमलोगों को पता ही नहीं चलता।
अब वह चलने,खेलने,बोलने और दौड॰ने लगा था।उसकी पढा॰ई आरम्भ होचुकी थी। उसे संस्कृत के बहुत से मंत्र कंठस्थ थे। उसका उच्चारण बहुत साफ था और मस्तिष्क बहुत प्रखर। वह जो याद कर लेता, उसे कभी भूलता नहीं था। वह मुझे कोई काम करने नहीं देता।वह अपनी माँ से गहरा लगाव रखता था और उनके आगे - पीछे लगा रहता।हमारा संसार अब केवल वही था। हमारे जीवन की सारी खुशियाँ उसी में समाहित थीं। हम जैसे एक स्वप्नलोक में जीवित थे।
किन्तु, नियति हमारे पीछे क्या खेल खेलने की योजना बना रही है , यह हम नहीं जानते।
अब उसकी उम्र नौ साल की होरही थी।एकदिन वह अपनी माँ के पास आया।उसने उनके चरण छुए और कहा - 'माँ, मैं जा रहा हूँ।' इसके पहले उसने ऐसा कभी नहीं किआ था। तुम्हारी दादी ने समझा यह उसका कोई नया खेल होगा। उन्होंने हँसते हुऐ उसे बहुत दुलार किआ और उसके सिर पर हाथ फेरतेहुए कहा -'शरारती! जल्दी आना।' कहकर वे काम में लग गयीं। थोडी॰ देर बाद जब वे लौट कर आईं तो देखा कि वह सोया है। दिन में वह कभी सोता नहीं था । देखकर तुम्हारी दादी बहुत चिन्तित हुईं, सोचा कहीं उसे बुखार तो नहीं! घबराई हुई वे उसके पास गईं।ललाट छूकर देखा तो वह एकदम ठंढा था। फिर घबराते हुए उन्होंने उसे जगाने की चेष्टा की तो पाया कि उसके शरीर में किसी तरह की कोई चेतना नहीं है।वे रोती हुई चिल्लाईं और मुझे पुकारने लगीं। आवाज सुनकर मैं दौडा॰ --दौडा॰ आया। वे उसे छाती से लगाए रो रही थीं। मैं कुछ समझ नहीं पया। उसे छूकर देखा। उसका पूरा शरीर बर्फ - सा ठंढा था। नब्ज देखा, उसमें कोई गति नहीं थी। आँखों की पुतलियाँ स्थिर थीं।वह अब इस संसार से किसी दूसरे संसार में जा चुका था। मेरे घर में हाहाकार छा गया। मेरी हँसती - खेलती दुनिया उजड॰ चुकी थी।हमारे जीने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया।इसका हमलोगों के मन पर दूरगामी प्रभाव पडा॰। कईबार इच्छा हुई कि इस जीवन का अन्त कर लें, परन्तु इस जीवन के नियम बहुत कठिन हैं। हम किसी अदृश्य के हाथों बँधे हैं।कुछ भी हमारे वश में नहीं है।'
'कुछ दिनों बाद तुम्हारी दादी फिर गर्भवती हुईं और एक और संतान की माँ बनीं। परन्तु , इस बार हमने उसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। बस , यंत्रवत उसकी देखभाल करते रहे। वह उपेक्षित जीवन जी रहा था। एकदिन हमारे गुरुदेव आए। घर की सारी स्थिति को उन्होंने देखा , समझा और कहा - 'कमलेश्वर !यह तुम्हारा वही पहला बच्चा है , जो लौट कर आया है। तुम इसकी जरा भी उपेक्षा मत करो।' गुरु जी की बात सुनते ही उसके प्रति हमारी दृष्टि बदल गयी और हम उसकी देखभाल करने लगे।समय तेजी से आगे बढ॰ने लगा। इस बीच उसके और भी भाई पैदा हुए।उसका नौवाँ साल लगा। एकदिन वह अपनी माँ के पास आया , उनके पाँव छुए और कहा - 'माँ ! मैं जा रहा हूँ।' यह सुनते ही तुम्हारी दादी घबरा गयीं।उन्होंने उसे बहुत जोरों से पकड॰ कर कलेजे से लगा लिआ और चिल्लाईं,- 'नहीं बेटा , नहीं, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूँगी।' परन्तु इसबार फिर से खेल खत्म होचुका था। वह उनकी गोद में ही दम तोड॰ चुका था।इस तरह एक के बाद एक कर हमारे छह बच्चे ठीक इसी तरह , समान स्थिति में हमें छोड॰ कर चले गये।सातवें पुत्र के रूप में तुम्हारे पिताजी का जन्म हुआ।तब मेरे मँझले भाई परमानन्द ने तुम्हारी दादी से कहा- 'भाभी! इसे आप हमें देदीजिए। हो सकता है यह हमारे भाग्य से जीवित रहे।' संतान के बारे में अब हम करीब - करीब भावहीन से होचुके थे। हमारी स्थिति एक मशीन से अधिक कुछ भी नहीं थी। भाई के ऐसा कहते ही हमने तुरत हामी भर दी। भाई ने जीवन भर विवाह नहीं किया। वह तुम्हारे पिता की हर तरह से देखभाल करते रहे।' मैंने पूछा - 'क्यों , उन्होंने विवाह क्यों नहीं किया ?' दादाजीने कहा -' उनके मन में डर था कि पता नहीं पत्नी कैसे स्वभाव की हो। कहीं वह इसकी उपेक्षा न कर दे और अपनी ही संतान की देखभाल में न रह जाए।' दादाजी ने आगे कहा -' मेरे भाई अपनी भाभी और बेटे को लेकर कामरूप कामख्या गये और वहाँ देवी की हर प्रकार से प्रार्थना और पूजा की। देवी ने उनकी पुकार सुन ली।वे जबतक जीवित रहे तबतक प्रति वर्ष तुम्हारे पिता और अपनी भाभी को लेकर कामरूप कामख्या (आसाम) जाते रहे और देवी की उपासना करते रहे।तुम्हारे पिता का नौवा वर्ष पूरा हुआ। अबतक उनके भाइयों में से किसी ने नौवाँ वर्ष पूरा नहीं किया था।अब हममें नयी आशा बँधी थी।परमानन्द समर्पितभाव से उसकी देखभाल करते रहे और तुम्हारे पिता , गंगाधर, बडे॰ होने लगे। उन्होंने अपनी पढा॰ई की और इतने बडे॰ डाँक्टर बने। परन्तु , उन्होंने सदा मेरे मँझले भाई को ही पिता तुल्य माना। अपने औषधालय का नाम उन्होंने परमानन्द औषधालय रखा और घर का परमानन्द भवन।मेरे छोटे भाई की पत्नी ने भी उनका बहुत खयाल रखा। तुम्हारे पिता उन्हें अपनी माँ की तरह सम्मान देते रहे। अपने इस पुत्र के प्रति तुम्हारी दादी की इतनी भावुकता का यही
कारण है।' कहकर दादाजी चुप होगये।मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।
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